________________
प्रशंसापूर्वक उल्लेख किया है उससे यह ध्वनित होता है कि वे उनके सामने विद्यमान रहे हैं। अतः विक्रमकी बारहवीं शतीका पूर्वार्ध उसका समय जानना चाहिए।
१५. सावयधम्मदोहा-देवसेन वा लक्ष्मीचन्द्र (१) अपभ्रंश भाषामें रचित दोहात्मक इस ग्रन्थमें श्रावकधर्मका वर्णन संक्षेपमें सरल शब्दोंके द्वारा किया गया है । प्रारम्भमें मनुष्यभवको दुर्लभता बताकर वीतराग देव, उनके द्वारा प्रतिपादित शास्त्र और निर्ग्रन्थ गुरुके श्रद्धानका उपदेश देकर ग्यारह प्रतिमारूप श्रावकधर्मका निर्देश किया गया है। प्रथम प्रतिमाधारीको पंच उदुम्बर और सप्तव्यसनके त्यागके साथ निर्दोष सम्यक्त्वका पालना आवश्यक है । इस प्रकारसे एक-एक दोहेमें ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन वसुनन्दिके समान ही किया गया है और उन्हींके समान ग्यारहवीं प्रतिमाका वर्णन दोनों भेदोंके साथ किया है। ___तत्पश्चात् पाँच उदुम्बरफल और तीनों मकारोंके त्यागरूप आठ मूलगुणका वर्णन, अगालित जल-पानका निषेध, चर्मस्थित घृत-तेलादिका परिहार, पात्र-कुपात्रादिको दान देनेका फल, उपवासका माहात्म्य, इन्द्रिय-विषयों एवं कषायोंके जीतनेका उपदेश, चारों गतियोंके कर्मबन्धोंका निरूपण और धर्म-धारण करनेका सुफल बताकर जिनेन्द्रदेवके अभिषेक-पूजन करनेकी प्रेरणा की गई है।
अन्तमें जिनालय, जिन-बिम्ब-निर्माणका उपदेश देकर जिन-मन्दिरमें तीन लोकके चित्र आदि लिखानेका फल बताकर 'अहं' आदि मंत्रोंके जाप ध्यानकी प्रेरणाकर ग्रन्थ पूरा किया गया है। संक्षेपमें कहा जाय तो सरल शब्दोंमें वर्तमान कालके अनुरूप श्रावकधर्मका वर्णन कर 'सावयधम्मदोहा' इस नामको सार्थक किया गया है। परवर्ती अनेक श्रावकाचारोंमें इसके अनेक दोहे उद्धृत किये गये हैं।
अभी तक इसके रचयिताका निर्णय नहीं हो सका है। दोहाङ्क २२४ के पश्चात् 'कारंजा' भण्डारकी एक प्रतिमें निम्नलिखित एक दोहा अधिक पाया जाता है
इय दोहा बद्ध वयधम्मं देवसेणे उवदिछु ।
लहु अक्खर मत्ताहीणयो पय सयण खमंतु ॥ अर्थात्-इस प्रकार देवसेनने इस दोहा बद्ध श्रावकधर्मके व्रतोंका उपदेश दिया। इसमें लघु अक्षर और मात्रासे हीन जो पद हों उन्हें सज्जन क्षमा करें।
अनेक प्रतियोंके अन्तमें इसे श्री लक्ष्मीचन्द्र-रचित होनेका भी उल्लेख मिलता है।
यथा-पाटोदी जैनमन्दिर जयपुरकी प्रति जो वि० सं० १५५५ के कात्तिक सुदि १५ सोमवारकी लिखी है, तथा ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन ब्यावरकी प्रति जो वि० सं० १६०९ के चैत्रवदि ९ रविवारकी लिखी है इन दोनोंमें स्पष्टरूपसे 'इति श्रावकाचार दोहकं लक्ष्मीचन्द्रकतं समाप्तम्' लिखा है। भाण्डारकर रि० इं० पूनाकी एक प्रति जो वि० सं० १५९९ की लिखी है उसके अन्तमें लिखा है-'इति उपासकाचारे आचार्य लक्ष्मीचन्द्र विरचिते दोहकसूत्राणि समाप्तानि'।
किसी किसी प्रतिमें इसका कर्ता जोइन्दु या योगीन्द्र भी लिखा मिलता है। भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट पूनाकी एक सटीक प्रतिमें लिखा है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org