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तीसरे उद्देशमें चारित्रका स्वरूप बताकर विकल चारित्रका वर्णन ग्यारह प्रतिमाओंको आश्रय करके किया गया है । इसीके अन्तमें विनय, वैयावृत्त्य, पूजन और ध्यानके प्रकारोंका भी वर्णन है।
सप्ततत्त्वोंका, श्रावकके १२ व्रतोंका, ११ प्रतिमाओंका, विनय, वैयावृत्त्य, पुजनके भेद और पिण्डस्थ आदि ध्यानोंका वर्णन वसुनन्दि-श्रावकाचारकी गाथाओंके मंस्कृत छायानुवादके रूपमें श्लोकों द्वारा किया गया है, यह प्रथम भागके टिप्पणोंमें दिये गये गुणभूषण श्रावकाचारके श्लोकोसे सिद्ध है।
__ कहीं-कहीं आशाधरके सागारधर्मामृतका भी अनुसरण स्पष्ट दिखता है। यथा(१) सागारध० अ० ३-सन्धातकं त्यजेत्सर्व दधि-तर्क द्वयहोषितम् ।।
__ काञ्जिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥११॥ गुण• श्राव० उ० ३-काञ्जिकं पुष्पितमपि दधितर्क द्वयहोषितम् ।
सन्धातकं नवनीतं त्यजेन्नित्यं मधुव्रती ॥ १८ ॥ (२) सागारध० अ०३-चर्मस्थमम्भः स्नेहश्च हिंग्वसंहृतचर्म च ।
सर्वं च भोज्यं व्यापन्नं दोषः स्यादामिषव्रते ॥ १२ ।। गुणभू० श्राव० उ० ३-विशोध्याद्यात् फलसिम्बि द्विदलमुम्बरव्रतम् । ___ त्यजेत्स्नेहाम्बु चर्मस्थं व्यापन्नान्नं फलव्रती ।। १७ ।।
(श्रावकाचार-संग्रह भाग २) इस प्रकारसे पूर्व-रचित श्रावकाचारोंका अनुकरण करते हुए भी इसकी यह विशेषता है कि अपनी नवीन प्रत्येक बातको संक्षेपमें सुन्दर ढंगसे कहा गया है।
इस श्रावकाचारके प्रत्येक उद्देशके अन्तमें जो पुष्पिका दी गई है, उससे ज्ञात होता है कि गुणभूषणने अपने इस श्रावकाचारका नाम 'भव्यजन-चित्तवल्लभ श्रावकाचार' रखा है और इसे साधु ( साहु ) नेमिदेवके नामसे अङ्कित किया है।
परिचय और समय __ इस श्रावकाचारके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गई है, उससे ज्ञात होता है कि मूलसंधमें विनयचन्द्र मुनि हुए, उनके शिष्य त्रैलोक्यकीत्ति मुनि हुए और उनके शिष्य गुणभूषणने पुरपाट-वंशज सेठ कामदेवके पौत्र और जोमनके पुत्र नेमिदेवके लिए उसके त्याग आदि गुणोंसे प्रभावित होकर ३ श्रावकाचारकी रचना की है। प्रशस्तिसे गुणभूषणके समयका कोई पता नहीं चलता है । पर यो जनन्दिसे पीछे हुए हैं : इतना निश्चित है।
२०.धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार-श्री ब्रह्मनेमिदत्त इस श्रावकाचारका संकलन प्रस्तुत संग्रहके दूसरे भागमें किया गया है। इसमें पांच अधिकार हैं। प्रथम अधिकारमें सम्यग्दर्शनका स्वरूप बताकर उसके आठों अंगोंका, २५ दोषोंका और सम्यक्त्वके भेदोंका वर्णन है। दूसरे अधिकारमें सम्यग्ज्ञान और चारों अनुयोगोंका स्वरूप बताकर द्वादशाङ्ग श्रुतके पदोंकी संख्याका वर्णन है। तीसरेमें आठ मूल गुणोंका, चौथेमें बारह व्रतोंका वर्णनकर मंत्र-जाप, जिन-बिम्ब और जिनालयके निर्माणका फल बताकर ११ प्रतिमाओंका निरूपण किया गया है । पाँचवें अधिकारमें सल्लेखनाका वर्णनकर इसे समाप्त किया है।
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