Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 26
________________ जैन तत्र के सिद्धांत / 25 पूरित इच्छाओं की संख्या DD. (5) " इच्छाओं की कुल सख्या DDA जहा D इच्छायें (Desires) हैं, Di अनंत इच्छायें (Infinite Desires) है और D. अनत कार्मिक धनत्व है। फलतः यदि Di=0, H==इनका मान शून्य से जितना ही कम होगा, H भी उतना ही कम होता जायेगा। धर्मतंत्र का उद्देश्य सुख H, को अनत बनाना है। सामान्य जन के लिये तो यह स्थिति कल्पनात्मक ही है। फलतः वह यह सोचता है कि H=0 के लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर प्रयत्न करना ही उसका जीवन लक्ष्य है। उपरोक्त गणितीय समीकरण से यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि H को अनत बनाने के लिये इच्छाओ की सख्या D को न्यूनतम या शून्य करना सरल (या कठिन ?) है क्योंकि इच्छाओं की पूर्ति प्रायः पर्याप्त सीमित एव स्थिर-सी होती है। यही तो जैन तत्र का मूल मत्र है। इसी से उपरोक्त समीकरण की सार्थकता सिद्ध होती है। यहां यह ध्यान मे रखना चाहिये कि इच्छायें D और कषाये P समानुपाती है। अतः उपरोक्त समीकरण मे D के स्थान पर P भी रखा जा सकता है। ___10. सुख के समान सतोष S, भी जीवन का लक्ष्य है क्योकि सतोष एव सुख की अनुभूति मे सीधा सम्बन्ध है। अर्थशास्त्रियो के अनुसार, सतोष की परिभाषा निम्न है : इच्छित पदार्थों की प्राप्ति S सतोष, s = = (6) इच्छित पदार्थों की संख्या - - Si जहा S और S, वस्तुओ की प्राप्ति (Acquisition) एव उनकी सम्पूर्ण सख्या (Total Materials) है। __उपरोक्त सभी समीकरणो का एक ही उद्देश्य है-एक विशेष प्रकार की जीवन पद्धति। जैन तत्र मे इस जीवन पद्धति को अहिंसक जीवन पद्धति कहा जाता है। जैनो के सभी व्रत, तप, और साधनाये इस जीवन पद्धति के क्रमिक विकास में सहायक होती है। यह पद्धति तीन रूपो में व्यक्त होती है-मन से, वचन से और काय से। जैनतत्र तीनो ही दृष्टियो से समन्वित रूप से अहिसक जीवन अपनाने का मार्ग सुझाता है। इन तीनो

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