Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 101
________________ 100 / सर्वोदयी जैन तत्र 7. मनुष्य और चरमसत्य के पाच परमेष्ठियो एवं तीर्थंकरों के उपदेशो बीच सम्बन्ध और उनके साहित्य के माध्यम से मनुष्य अपने अभ्यास द्वारा चरम सत्य का अनुभव करता है। 8. प्रायोगिक : मानव-व्यवहार पाच अणुव्रत-या महाव्रतो का पालन, एव प्रवृत्तिया और उनका अभ्यंतर और बाह्य तपो का अभ्यास, लक्ष्य शुभतर जीवन एव जन्म के लिये रत्नत्रय मार्ग का परिपालन अहिसक जीवन पद्धति, सर्वोदयी लक्ष्य। 9- सामाजिक : प्रमुख संस्थाये, मदिर, स्थानक, स्थिर चतुर्विध सामाजिक सस्थाये सघ-व्यवस्था, परस्पराश्रित सघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका,) जनहितकारी अनेक संस्थाये।

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