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68 / सर्वोदयी जैन तंत्र
धार्मिक जीवन बिताते हैं। अब तो भूतकालीन व्यक्तिवादी विधि-विधान भी समाजीकृत हो गये हैं। भक्तिवादी विधि-विधानों के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की भौतिक और मानसिक पूजायें, अभिषेक, प्रार्थना और भजन, सामायिक, धर्मोपदेश- श्रवण आदि की प्रक्रियायें समाहित होती हैं। सामाजिक उत्सवपरक विधि-विधानो के अन्तर्गत अनेक बहुव्ययी भी होते हैं। इनमें तीर्थकर मूर्तियों की पूजनीयता के लिये उनके जीवन की गर्भ से लेकर निर्वाण तक की पाच पवित्र घटनाओं के प्रतीक के रूप में किये जाने वाले पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव या अन्य प्रकार के उत्सव, वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव, तथा इद्रध्वज, कल्पदुम, सिद्धचक्र विधान आदि समाहित होते है। साधुओं का दीक्षा महोत्सव भी एक ऐसा ही उत्सव है। ये बहुदिवसीय एवं महाप्रभावक आयोजन होते है जो जैन संस्कृति की प्रभावना में महान योगदान करते है। इनकी परम्परा बहुत प्राचीन है। अब तो ये उत्सव लेस्टर, नैरोबी, शिकागों आदि विदेशी नगरो मे भी सम्पन्न होने लगे हैं। इनसे जैन संस्कृति की जीवतता एव रग-विरगेपन की गरिमा प्रकट हुई है ।
जैनो मे विधि-विधानों के अतिरिक्त, अनेक अन्य उत्सव भी होते हैं। इन्हे सामान्यतः 'पर्व' कहा जाता है। ये पर्व गन्ने की गाठो के समान धार्मिकता को प्रबलित करते हैं और जीवन को समग्रतः भौतिक और आध्यात्मिक रूप से रसमय बनाते है। ये धार्मिक क्रियाओ और लक्ष्यों के स्मारक है। कुछ उत्सवो मे कर्मकाड भी समाहित होता है। अगस्त-सितम्बर मे मनाया जाने वाला 8-10 दिनों का पर्यूषण पर्व 'पर्वराज' कहलाता है। इन दिनो धार्मिक क्रियाओ के अनुष्ठान, स्वाध्याय, धार्मिक प्रवचन और कथा पाठ किचित् तीक्ष्णता से किये जाते है । उपवास, ऊनोदरी आदि से भौतिक लाभ भी प्राप्त किये जाते है । रत्नत्रय, षोडशकारण, अष्टान्हिका, नदीश्वर आदि व्रतो के परिपालन की पूर्णता के समय भी वर्ष के विभिन्न अवसरो पर उत्सव आयोजित किये जाते है। महावीर निर्वाण के स्मारक के रूप मे प्राय अक्टूबर-नवम्बर मे मनाये जाने वाले दीपावली उत्सव (प्रकाश- दीप उत्सव) को कौन भूल सकता है ? यह जैन संस्कृति का ही नही, समग्र भारतीय संस्कृति का प्रकाशक उत्सव कहा जाता है। श्रुतपंचमी का पर्व हमे महावीर के प्रथम उपदेश और श्रुत-सरक्षण के प्रयत्नों का स्मरण कराता है। अगस्त मे पडने वाला रक्षाबंधन पर्व तो जैनो का ही नही,