Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ 80/ सर्वोदयी जैन तत्र प्राचीनता की धारणा ही इसकी लोकप्रियता मे बाधक बनी है। (2) इसकी निवृति मार्गी भाषा-जिसमें दमन, कायक्लेश, भोजन-नियत्रण, उपवास और शारीरिक एव मानसिक कठोर साधना तथा त्याग आदि समाहित है-भी लोगो को बहुत रास नही आ पायी है। लोगो की यह धारणा है कि अधिक प्राचीनता जडता का सकेत देती है। फलत. हमे इसकी भाषा को नवीनतासकारात्मकता देनी होगी। यही नहीं, इसमे जनसाधारण के लिये कोई विशिष्ट दर्शन नही है। यही कारण है कि यह अनेक वर्तमान समस्याओ पर केवल मौन दर्शाता है। (३) जैन तत्र सकल्पी, व्यक्तिवादी एव पौरुष प्रधान तत्र है। इसमे स्वय का श्रम ही लक्ष्यवेधी होता है। फलत. अन्य भक्तिवादी तत्रो की तुलना में यह जनसाधारण को और भी कठोर प्रतीत होता है। (4) यह अतीतमुखी भी अधिक लगता है। वस्तुत. ये सभी विन्दु इसकी व्याख्या के वर्तमान स्वरूप को व्यक्त करते है। यदि हम इसके सिद्धान्तो को नयी वैज्ञानिक भाषा और आकर्षक व्याख्या दे सके, तो इसकी प्रभावकता की . वृद्धि में चार चाद लग सकते है। आज के वैज्ञानिक युग मे इसके अधिकाश भौतिक और नैतिक जगत सबधी सिद्धान्त न केवल पुष्ट हुये है अपितु परिवर्धित भी हुए है। यही कारण है कि आज विश्व के अनेक भागो मे इसके प्रति रुचि बढ़ रही है। जैन तत्र विश्व का अप्रतिम अनीश्वरवादी तत्र है जिसमे जीवन की वाह्य और आभ्यन्तर अनत सुखमयता के आशावादी उद्देश्य को स्वयं प्राप्त करने के सकारात्मक उपाय बताये गये है। इसमे समग्र जीवन धारियो के प्रति समत्व और स्नेह, परिवेश की शुद्धता के प्रति चर्याये, सुविचारित क्रियात्मकता, स्वय के ईश्वरत्व के प्रति आशावाद, शाकाहारी पद्धति के प्रति प्रतिबधहीन समर्पण, हिसा, पीडा, या दुख के अल्पीकरण की प्रवृत्ति, बुद्धिवादी दृष्टिकोण को अपनाने की मानसिकता, सर्वधर्मसमभावी सापेक्षदृष्टि, जाति एव सम्प्रदायविहीन समाज रचना की मौलिक वृत्ति, अनेक सामाजिक एव राष्ट्रीय समस्याओ के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण (गर्भपात, मृत्युदण्ड, सुखमृत्यु-इन के सबध मे सैद्धान्तिक सहमति नही है) आदि समाहित हैं। इन्ही आधारो पर जैनतत्र को प्रगतिशील, गतिशील और क्रातिकारी कहा जाता है। हमे इस तत्र के इन रूपो का आधुनिक रीति से व्यापक प्रसार करना चाहिए। इन सभी आधारो पर जैनतत्र के विश्वीयकरण की प्रक्रिया

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101