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जैन तत्र की प्रभावकता का संवर्धन 179ds
पक्षो पर ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रास, आस्ट्रिया, कनाडा, अमरीका, जापान तथा अन्य देशो मे शोध कार्य सम्पन्न होने लगा है। विभिन्न अवसरों पर वार्षिक व्याख्यानमालाये भी आयोजित होती है। नयी पीढी के लिये भी अनेक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। इस तरह विदेशो मे अब जैनधर्म जैनो मे तो लोकप्रिय हो ही रहा है, वह वहा के सामान्य और विद्वतजनो को भी आकर्षित कर रहा है। अब यह विश्व के प्रायः सभी महाद्वीपो मे अपनी पहचान बनाता दिखता है। इसके साध साध्वी, विद्वान और श्रावक सर्वत्र दिखने लगे है। यही कारण है कि भारत के बाहर जैनो की सख्या अब लाखो मे पहुच चुकी है। इस प्रकार हम देखते है कि इस सदी के पूर्व तक प्राय. अज्ञात बना यह धर्म अब दिग्-दिगत मे अपनी सुवास फैला रहा है। इसका भविष्य अति उज्ज्वल है। एतदर्थ विश्व के कुछ प्रमुख केन्द्रो पर स्थायी रूप से जैन केन्द्र स्थापित करना एव जीवनदानी जैन साधु/विद्वनमण्डली को तैयार करना आवश्यक है।
12. जैनतंत्र की प्रभावकता का संवर्धन
जैनतत्र के सिद्वान्तो की वैज्ञानिकता और सार्वजनीन उपयोगिता के बावजूद भी यह अपने से उत्तरवर्ती तत्रो की तुलना मे प्रभावी रूप से अतिजीविता एव प्रचार क्यो नही पा सका ? यह प्रश्न गहनत. विचारणीय है। सामान्यत विश्वजनीनता के लिये तत्र की एक-सस्थापकता, एक पवित्र पुस्तकता और उत्तमता की धारणाये उत्तरदायी मानी जाती है। दुर्भाग्य से, ये तीनो ही धारणाये इस पर लागू नही होती क्योकि इसके सस्थापको की चौबीसी की त्रैकालिक परम्परा है, इसकी पवित्र पुस्तको की सख्या 12-84 के बीच कुछ भी हो सकती है। इसी प्रकार अन्य तत्रो मे भी सत्यता है-की अनेकातवादी धारणा इस तत्र की उत्तमता को भी स्पष्टत उद्घोषित नही करती। यद्यपि इन तीनो ही आधारो पर इसकी प्रभाविता प्रबल नही दिखती, पर बौद्धिक दृष्टि से इसका व्यक्ति-विहीन गुण-विशेषित नाम और इहलौकिक एव पारलौकिक सुख-सवर्धन की प्रक्रिया इसे महाप्रभावी सिद्ध करती है। वैज्ञानिक और बुद्धिवादी युग के लिये यह उत्तम तत्र है। इसकी लोकप्रियता के सवर्धन के लिये अनेक उपाय सुझाये जा सकते है। अनेक विचारक यह मानते है कि (1) इसकी प्रागैतिहासिक कालीन परम्परागत