Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 93
________________ 92 / सर्वोदयी जैन तत्र (जैनों के समान तीक्ष्णता से नहीं) मान्य है और अब विश्वजनीन होती जा रही है। जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण से उत्पन्न हानिकारक गैस और अपशिष्ट पदार्थ, विभिन्न प्रकार के वाहनो का उपयोग, वनों का दुरुपयोग या अधि. उपयोग और अन्य कारणो से इस समय भयकर पर्यावरण की समस्याये उत्पन्न हो रही है जिनमे अतरिक्ष मे ओजोन परत का विदारण भी है। स्वच्छ एव सतुलित पर्यावरण के लिये अनेक प्रयत्न किये जा रहे है और विश्व स्तर पर इस समस्या की विकरालता के कारण और निवारण के उपाय ब्राजील-जैसे सम्मेलनो मे चर्चित हो रहे है। दूरदर्शन और अन्य सचार माध्यमों से वनस्पतियो के दुरुपयोग को रोकने, वृक्षों/वनो की कटाई पर नियत्रण करने तथा जल, विजली एव अन्य प्राकृतिक ससाधनो के दुरुपयोग या उपेक्षणीय उपयोग पर नियंत्रण करने के सदेश निरंतर प्रसारित किये जा रहे है। पर्यावरण की शुद्धता बनाने रखने के लिये जनमानस को जागरूक बनाने के लिये पर्यावरण दिवस, वृक्षारोपण सप्ताह आदि का आयोजन किया जा रहा है। अब तो "पर्यावरण सेना” का भी गठन होने लगा है। बहुतेरे लोग यह कह सकते है कि पर्यावरण सरक्षण के समान समस्याओ का धर्म से क्या सम्बन्ध है ? लेकिन जैन-तत्र के सर्वजीववाद एव अहिसा के सिद्धान्त और उनके अनेक शास्त्रीय विवरण इस दिशा मे हमे पर्याप्त मार्गनिर्देश देते है । अहिसा की मानसिक मनोवृत्ति वृक्षों या बनो को अनावश्यक रूप से नष्ट करने या एकेन्द्रिय जीवो को हानि पहुचाने की प्रवृत्ति पर नियत्रण करती है और वन एव वन्य प्राणियो को सुरक्षा देती है। जैनो की आवश्यकताओ के अल्पीकरण एव अनर्थदण्ड वृत्ति की मान्यताये यह सकेत देती है कि हमे पृथ्वी मा या प्रकृति से उतना ही लेना चाहिये जितना वह पुनरुत्पादित कर सके या हम उन साधनो के पुनरुत्पादन मे सहयोग कर सके । इससे वर्षा और वनो के बीच सतुलन बना रहेगा। "वन महोत्सव" इसी प्रक्रिया का प्रतीक था। जैन शास्त्र बताते है कि हमें अपनी न्यूनतम आवश्यकतानुसार ही प्राकृतिक ससाधनो का उपयोग करनार चाहिये। जैनाचार्यों को महाप्रभु ईसा से सदियों पूर्व इस बात का अनुभव हुआ था कि हमारा पर्यावरण तत्र अन्योन्य-निर्भर है जिसमे जल, वायु,

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