Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 96
________________ परीक्षा की घड़ी : सर्वोदयी जैन तंत्र / 95 दैनंदिन जीवन का अग बनाये हुये हैं। मुख्तार जी की "मेरी भावना" के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को निम्न उद्देश्यों के अनुरूप प्रवृत्ति करनी चाहिये · सुखी रहें सब जीव जगत के कोई कभी न दुख पावे I वैर-भाव, अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे ।। जैन प्रार्थनाओ की ऐसे स्वरो की लहरे निश्चित रूप से एक शातिमय एव गतिशील विश्व की सरचना में सहायक होगी। इस दृष्टि से जैन तत्र के सर्वोदयी विचारो एव प्रवृत्तियो का भविष्य अत्यन्त प्रकाशवान लगता है। पाचवीं सदी के आचार्य समन्तभद्र ने इसीलिये जैनतत्र को 'सर्वोदयीतत्र', अपने 'युक्तयनुशासन' मे बताया था। वह रूसो के 'नागरिक धर्म की बीसवी सदी की अवधारणा का ईसापूर्व कालीन रूप है।

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