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94/ सर्वोदयी जैन तत्र , आदि) का परिसीमन करने की मनोवृत्ति विकसित करें, तो उद्योगों की बहुलता एव तज्जन्य प्रदूषण में भी कमी होगी। साथ ही, जैनो का अनर्थदंड व्रत (अनुपयोगी या उपेक्षणीय जल, थल, नभ के ससाधनों का उपयोग) आज के संचार माध्यमों द्वारा जल, बिजली एव थल-सक्षारण के मितव्ययितापूर्ण सदुपयोग का ईसापूर्व-कालीन रूप ही है। शाकाहार की प्रवृत्ति भी पर्यावरण संरक्षण में सहायक है क्योकि इसमे मासाहार की तुलना मे अल्पमात्रा में प्रकृति का सदोहन होता है। इसी प्रकार, यदि हम अपने कायिक व्युत्सों को ग्रामीण पर्यावरण में गांधी पद्धति के आधार पर विमोचित करे, तो भी प्रदूषण में कमी आ सकती है । ध्वनि प्रदूषण भी भाषा समिति के सत् प्रयोग से कम किया जा सकता है। दिगव्रत और देशव्रत के अन्तर्गत व्यावसायिक या अन्य परिभ्रमण को सीमितकर वाहनजन्य प्रदूषण मे किचित् कमी तो लाई ही जा सकती है। वस्तुतः ये परिसीमन ग्रामीण-सस्कृति के परिप्रेक्ष्य मे और हिसा के अल्पीकरण की दृष्टि से उपदेशित किये गये थे। आज की शहरी सस्कृति के युग मे ये सीमाये उपहासमात्र लगती हैं। परन्तु जैसे अहिसा का स्वरूप व्यक्तिगत से राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय हो गया है, वैसे ही इन व्रतो को व्यापक रूप देकर यथाशक्ति परिसीमन करने से लाभ ही होगा। वैसे ऐसा लगता है कि सचार सुविधाओ के जागतिक विस्तार से इन व्रतों के परिपालन को प्रेरणा ही मिली है। इस प्रकार जैनो के अनेक व्रतो का व्यापकीकरण पर्यावरण सरक्षण मे अत्यन्त प्रभावी रूप ले सकता है।
14. परीक्षा की घड़ी : सर्वोदयी जैन तंत्र
आज का व्यक्ति और समाज जैन-तत्र मे प्रतिपादित व्रतों के परिपालन की दृष्टि से एक तिराहे पर खडा है। वर्तमान का वातावरण लाभ-हानि की दृष्टि से अनेक विरोधी कारकों के प्रति अनुराग और विकर्षण से भरा हुआ है। आज मानव का विवेक कठिन परीक्षा के दौर से गुजर रहा है। तथापि, यह ध्यान में रखना चाहिये कि धर्म-तत्र मनुष्य को ऐसा लक्ष्य निर्देशित करता है जहां उसे अत्यन्त सावधानी एवं सामर्थ्य से बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये। यह आशा की जाती है कि जैनतंत्र की शिक्षायें अच्छे ओर नैतिक सर्वोदयी समाज के निर्माण की इस परीक्षा की घड़ी में अतिजीवी सिद्ध होंगी। इसीलिये जैन सदैव शातिपाठ और अन्य भावनाओं को अपने