Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 92
________________ समसामयिक समस्यायें और जैन धर्म 191 (1) पर्यावरण संरक्षण जैनों के अहिंसा सिद्धान्त के तीन प्रमुख अभिधेय हैं-(1) सभी प्राकृतिक पदार्थों में सजीवता या सर्वजीववाद की धारणा (2) सभी जीवों में समानता की अनुभूति एवं करुणाभाव का अनुप्रयोग और (3) सभी जीवों में पारस्परिक सहयोग, उपकार्य-उपकारक भाव या अन्योन्य निर्भरता का निरीक्षण। इस तरह यह सिद्धान्त मनुष्यों के अतिरिक्त पशु एव प्राणिजगत को भी समाहित करता है। यह समन जीवित तत्र का प्रतीक है और प्रत्येक जीविततत्र के लिये समता एवं आदरभाव रखने का आदेश देता है और तदनुरूप प्रवृत्ति के लिये प्रेरित करता है। आचारांग के समान जैनो की प्राचीनतम पवित्र पुस्तक में बताया गया है कि उच्चतर जीवो की तो बात ही क्या, वनस्पतियो को भी किसी प्राकर की हानि पहुचाना मोह, कर्मबंध, मृत्यु एव नरक का द्वार है। वास्तव में, यदि कोई मनुष्य अपनी ही सजीव जाति के निम्न स्तर के जीवन को हानि पहुंचाता है, तो वह अहिंसक या धार्मिक कैसे हो सकता है? इन महत्वपूर्ण उपदेशो ने हमारे समाज एव परिवेशो के क्षेत्रो को भी प्रभावित किया है। सामाजिकत ये उपदेश हमे शाकाहारी बनाते है और पर्यावरण की दृष्टि से ये हमे पर्यावरण के सतुलन को बनाये रखने के लिये प्रकृतिमाता को सौदर्यमयी बने रहने में सहायक होते है। इस सदी के प्रारभ मे शाकाहार अनेक प्रकार के विवादो एव भ्रात सूचनाओ का शिकार बना था, पर अब वैज्ञानिक मानने लगे है कि यह एक पोषक, प्रबलन के द्वारा संपूरित, दीर्घजीविता प्रदायक एवं आध्यात्मिकत. भद्र आहार पद्धति है। इसका विश्व मे व्यापक प्रचार हो रहा है और इसके प्रसार के लिये अनेक राष्ट्रीय और अतर्राष्ट्रीय संगठन काम कर रहे हैं। एक ताजी रिर्पोर्ट के अनुसार, मासाहारी व्यवसाय की श्रृखलाये क्रमश : बद होती जा रही है। विश्व की विमान सेवाओ तक मे 25-30 प्रतिशत लोग शाकाहारी भोजन की माग करने लगे हैं । अब तो यह भी माना जाने लगा हैं कि शाकाहार अपनाने से विश्व मे खाद्य की कमी की समस्या हल होती है। यह पद्धति स्वास्थ्यदायक है, इससे उत्तम कोटि के ग्रंथि स्त्राव होते है जो क्रोधादि सघर्षकारी एवं हिसक प्रवृत्तियो को बलवान नहीं बनने देते। यद्यपि इस पद्धति के प्राचीन उद्घोषक जैन रहे हैं, पर यह सब धर्मों मे

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