Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 90
________________ समसामयिक समस्यायें और जैन धर्म 189 , से पर्याप्त भिन्न मिल रही है। उपरोक्त दृष्टियो से अधिसंख्य मनुष्यों की स्थिति संतोषपूर्ण नहीं है। हम देखते हैं कि प्राकृतिक और अर्जित संपदा कुछ ही हाथों मे केन्द्रित है और अधिसख्य व्यक्ति दुख और अभाव से ग्रस्त हैं। इसका कारण क्या है? मनुष्य की सामान्य प्रकृति महत्वाकाक्षी और अस्मितावादी होती है जिसे वह अपने बुद्धिबल, चातुर्य एव ससाधनो से सतुष्ट करता है। तथापि, इन्हें पूर्ण करने में बहुत कम लोग ही सफल होते है जो दूसरो का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दमन और अधिग्रहण करते हैं। इस प्रकार समाज मे दो वर्ग बन जाते हैं जिनमें भारी असमानतायें होती हैं। धर्मज्ञ लोग इस तथ्य की कर्मवाद के पर्याप्त मनोवैज्ञानिकतः संतोषकारी सिद्धान्त से व्याख्या करते है। यही अनेक सामाजिक और आर्थिक समस्याओ एव विषमताओं का कारण है। लेकिन सैद्धान्तिक दृष्टि से यह स्थिति पूर्णतः सही नहीं है, सामाजिक दृष्टि से यह न्याय संगत भी नहीं है। इस सामाजिक विषमता को दूर करने की दिशा मे भी जैनतंत्र ने महत्वपूर्ण मार्गदर्शन दिया है। उसने सपत्ति और ससाधनो के आवश्यकतानुसार समान वितरण, चतुर्विध दान की अनिवार्य प्रवृत्ति और अपनी लोभवृत्ति तथा आवश्कताओ को नियत्रित एव सीमित करने के सिद्धान्त प्रतिपादित किये है। इसे जैन समाजवाद कहा जाता है। इसका उद्देश्य मनुष्यो को न केवल आध्यात्मिक स्तर पर ही समानता प्रदान करना है, अपितु भौतिक स्तर पर भी उनमे समानता लाना है। यह सिद्धान्त भी अहिसा के मानवीकृत स्वरूप की अभिव्यक्ति है। यह जैन-तत्र के पाच अणुव्रतो या महाव्रतों मे से पाचवा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है जिसे "अपरिग्रहवाद" (ममकार-त्याग) कहा जाता है। यह मानव की एक अतरग वृत्ति है जो सपत्ति और साधनो के प्रति विरागता उत्त्पन्न करती है। वस्तुतः जैन तत्र का बल नैतिकता की ओर अधिक उन्मुख है, भौतिक या आर्थिक तत्रों की ओर वह अधिक उन्मुख नही है। फलतः मनुष्य की दो मूल वृत्तियो-अहकार और ममकार, यहा मेरा है आदि-को नियत्रित एव विदलित करने के लिये जैन तत्र अनेक उपाय सुझाता है जिससे समाजवादी सर्वोदयी समाज रचना का लक्ष्य प्राप्त हो सके। इसीलिये गाधी जी का सपत्ति के ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त जैन समाजवाद का ही एक रूप है। वर्तमान युग मे विकसित

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