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समसामयिक समस्यायें और जैन धर्म 187 तब उस पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार तो अपेक्षित है ही। कुछ आगमों मे गर्भपात के उपायों के निरूपण से यह तो प्रकट होता ही है कि यह विधि प्राचीन काल में प्रचलित थी। फिर भी, यह कहना असगत नहीं होगा कि इसे सार्वजनिक अनुमोदन नहीं था। आज जनसख्या वृद्धि और उसके राष्ट्रीय आर्थिक प्रगति पर पडनेवाले विपरीत प्रभावो से सारा मानव समाज चिंतित हो रहा है । धार्मिक सिद्धान्तो के विश्वस्तरीय सप्रसारण के दृष्टिकोण से उनकी व्यवहारिकता की चर्चा मनोरजक है। टोबायास ने लिखा है कि ससार मे शुद्ध या मध्यम अहिसको की सख्या अत्यन्त कम है। फिर भी, उनका सिद्धान्त आकर्षक तो है ही। यह व्यक्तिगत समस्याओ के समाधान और विकास में सहायक तो है पर सभी राष्ट्रीय समस्याओ के लिये इसके रूप भिन्न-भिन्न एव परिवर्धित होगे। उसकी तो मान्यता है कि चूकि शास्त्रो मे इस सबध मे न विरोध है और न समर्थन, अतः ऐसे प्रकरणो मे मानव को बहुजनहित एव भावी हित, की दृष्टि से विचार करना चाहिये। यह दृष्टि जितनी ही अहिसक होगी, उतना ही उत्तम होगा। सुखमृत्यु, दहेज और विधवा विवाह के समान समस्याये भी अहिसक और अनेकाती दृष्टिकोण चाहते है।
(स) युद्ध और राजनीति
यद्यपि जैनो का अहिसा सिद्धान्त व्यक्तिप्रधान है, फिर भी अनेक धर्मगुरुओ और राजनेताओ ने इसमें विद्यमान प्रसुप्त क्षमता की उत्कृष्ट कोटि का अनुभव . किया है। वे इसे सामाजिक समानता और राष्ट्रीय स्वतत्रता की उपलब्धि का माध्यम बना सके । महात्मा गाधी, मार्टिन लूथर किग, डी-वेलेरा, नेल्सन मडेला और अन्य ज्वलत नक्षत्र हैं जिन्होने अहिंसा
और उसकी अपार क्षमता को अभिव्यक्त करने मे इस सदी मे ही योगदान किया है। मध्यकाल मे भी अनेक जैन साधु-सतो ने अपनी अहिसक जीवन पद्धति एव चर्या के आधार पर ही अनेक राजाश्रय पाये और जैन सस्कृति के अखिल भारतीय रूप को संवर्धित किया। आज विश्व के अनेक भागों में "सेना रहित राज्य" की अवधारणा इसी अहिंसा के सिद्धान्त का राजनीतिक विस्तार है। फलतः अब अहिसा व्यक्ति प्रधान मात्र न रहकर समाज एव राष्ट्र की उन्नति का अमोघ अस्त्र बन रही है। संयुक्त राष्ट्र सघ (195 देश), पक्षातीतता का आदोलन, जी -77, सार्क, तथा अन्य सस्थायें