Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 89
________________ -88/ सर्वोदयी जैन तंत्र विश्वस्तर पर इसके प्रायोगिक स्वरूप हैं। अहिंसा की व्यावहारिक घारणा ने नैतिक पुनर्जागरण, निःशस्त्रीकरण तथा न्यूक्लीय एवं रासायनिक युद्धकला के प्रयोगो की उपेक्षणीयता के प्रति विश्वस्तर पर विश्वास जगाया है। विश्वशाति एंव संघर्ष-समाधान अब एक शैक्षिक शोघ विषय बन गया है। इसके लिये अनेक संस्थाये विश्व के अनेक भागो में स्थापित हुई हैं। भारत मे भी जैन विश्वभारती एव अणु-विभा जैसी सस्थायें गठित हुई हैं जिन्होंने अनेक संघर्ष -समाधान के वैज्ञानिक एव नैतिक पहलुओं पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी आयोजित किये है। विश्व की राजनीतिक शक्तियों ने अहिंसा के प्रायोगिक प्रतीक-पचशील के प्राचीन सिद्धान्तों को मान्यता दी है और राजनीति में नैतिकता तथा पारस्परिक विचार-विनिमय के अनेकान्तवादी सिद्धान्त को प्रतिष्ठित करने के अनेक उपक्रम किये है। राजनीतिज्ञो ने अब विवेक और विचार-विनिमय (संगोष्ठी, सम्मेलनो) के माध्यम से अपने अनेक राजनीतिक प्रकरण निपटाने की प्रक्रिया अपनाई है। ये प्रक्रम भी अहिसा और दृष्टिकोण-समन्वय के आधुनिक रूप है। वस्तुतः युद्ध और उससे होनेवाली विनाशलीला को टालने के लिये यह प्रक्रिया सर्वोपयोगी सिद्ध हुई है। इस दिशा मे भरत और बाहुबली का ऐतिहासिक दृष्टात अत्यन्त मार्गदर्शक है जो विश्वशाति के सवर्धन मे परम सहायक है। मेरूप्रभ नामक हाथी का उदाहरण भी यह सकेत देता है कि पशुओ मे भी अहिसक वृत्ति जाग सकती है। अहिसक राजनीति स्थायी शाति और प्रगति के नवयुग का सूत्रपात करेगी। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनो के अहिसा और अनेकातवाद के सिद्धान्तो ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में राजनीति एव युद्धोन्माद को नियत्रित करने मे वर्तमान युग मे महत्वपूर्ण योगदान किया है और इन सिद्धान्तों की व्यापकता बढाई है। शाति की दिशा मे इनका स्वरूप दार्शनिक एव आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ सार्वकालिक और सार्वभौम होता जा रहा है। (द) सामाजिक विषमता और जैन समाजवाद नैतिक, और धार्मिक दृष्टि से सभी मनुष्य समान हैं और समान क्षमता रखते है। इसलिये सयुक्त राष्ट्रसघ के मानव अधिकार घोषणापत्र के अनुसार उन्हें भोजन, वस्त्र, आवास एव आजीविका आदि अन्य कारको के लिये समान अवसर होने चाहिये । लेकिन हमे वर्तमान स्थिति इस आदर्श

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