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समसामयिक समस्यायें और जैन धर्म / 85
माध्यम से जैनों में महिलाओं का अरुचिकर एव निराशापूर्ण चित्रण दिखाते है, पर ये विवरण तत्कालीन सामाजिक मनोवृत्ति के निरूपक है। इसी मनोवृत्ति को ही तो महावीर ने परिवर्तित करने का यत्न किया है।
महावीर के धर्म में ससार से निवृत्ति के लिये और सुखवर्धन के लिये जिस प्रकार संसार की दुखमय यथार्थता. का, शरीर से ममत्व हटाने के लिये उसके अतरंग अवयवों एव सरचना का अरुचिकर वर्णन मिलता है, उसी प्रकार नारी को ससार के कारण के रूप मे मानकर उनके प्रति अरुचि उत्पन्न करने के लिये उसके दुर्बलपक्षो का भी वर्णन मिलता है। यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानव को दुख निवृत्ति एवं सुखवृद्धि के मार्ग के लिये प्रेरित करने का उपक्रम है। पर इसे एकपक्षीय विवरण नहीं मानना चाहिये ।
वस्तुत. महावीर के धर्म में नारी के उज्ज्वल पक्ष का विवरण भी पर्याप्त प्रभावक है। उसे चक्रवर्ती के चौदह रत्नो मे से एक माना जाता है। वह केवल पुत्री, पत्नी, माता ओर गृहलक्ष्मी ही नही है, वह जैन संघ की महत्त्वपूर्ण घटक भी है। वह अध्यात्मपथ की ओर अग्रसर आर्यिका एव साध्वी भी है। बोरदिया ने अपने ग्रंथ में प्रागैतिहासिक काल से लेकर बीसवीं सदी तक की 430 प्रमुख जैन महिलाओ का विवरण दिया है जिसमें उन्होंने जैन सस्कृति के विविधपक्षो के संवर्धन मे अनेक रूपो मे उनके प्रभावक योगदान की चर्चा की है। इसमे सन्मार्ग-प्रेरक के रूप मे भी उनका योगदान बताया गया है (नीलाजनाओ ने तीर्थंकरों को, ब्राह्मी - सुदरी ने बाहुबलि को, राजुल ने रथनेमि को, मदोदरी ने रावण को, वेश्या कोशा ने स्थूलभद्र के सहधर्मी साधुओ ं को, सुभद्रा ने धन्ना को जाकल देवी ने त्रिभुवनपाल को प्रतिबुद्ध किया) । उनके सतीत्व, महासतीत्व एवं शीलव्रती रूप के अनेक उदाहरण ज्ञात है। इनमे अनेक विदुषी भी रही हैं (याकिनी महत्तरा, गणिनी ज्ञानमती) । उन्होंने साहित्य निर्माण एवं प्रतिलिपिकरण कराकर उनकी रक्षा भी की है (ओवे, कतीदेवी, रणमति, रत्नमति, अतिमब्बे आदि) । उन्होंने प्रशासन और वीरता मे यश कमाया है (अक्कादेवी, केतलदेवी, शांतलदेवी, सावियव्वे आदि) । अध्यात्म पथिक बनने वाली महिलाओं की सख्या तो अगणित है ही। फलत: इस उज्ज्वल पक्ष के प्रभावक वर्णन की तुलना में उनके विषय मे अरुचिकर वर्णन तुच्छ ही लगता है। इसीलिये अनेक विद्वान यह मानते हैं कि नारी के विषय में जैन मान्यतायें अन्य तत्रो