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84/ सर्वोदयी जैन तंत्र समाज मे यह धारणा है कि मातृसत्ताक समाज में पुरुष जाति के प्रति भी इसी कोटि की अनुदारता बरती गई होगी। इसलिए इस प्रक्रिया को परिवर्धित करने के बदले व्युत्क्रमित करना चाहिये। पर महिलाओं की मातृत्व-संज्ञा इस मनोवृत्ति का समर्थन नहीं करती। महावीर का युग परंपरावादी समाज का युग था जहा महिलाये विक्रय तक की वस्तु मानी जाती थीं। महावीर ने इस प्रवृत्ति के विरुद्ध आवाज उठाई और पुरुषों और महिलाओ की समानता का सिद्धान्त प्रवर्तित किया। जैन इतिहास बताता है कि अकविद्या ओर अक्षरविद्या का सवर्धन भगवान रिषभदेव की पुत्रियोब्राह्मी और सुदरी-ने ही किया था। जैनो मे लक्ष्मी, सरस्वती, अबिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी आदि को उपकारक देवियो के रूप में माना गया है। तीर्थंकरो की माताओ को उत्तरवर्ती काल मे शलाकापुरुषो मे समाहित किया है। महावीर की महिलाओ सबधी उदार विचारधारा का ही यह परिणाम था कि उन्होने अपनी चतुर्विध सघ-व्यवस्था में साध्वियो और श्राविकाओ को पृथक स्थान दिया जिसके विषय मे प्रगतिशील माने जाने वाले बुद्ध भी सकोच करते रहे । साथ ही, यह भी पाया गया है कि महिला संघ के सदस्यो की सख्या पुरुष वर्ग से सदैव दुगुनी रही है। महावीर के युग मे सभवतः साध्विया अधिक होती थी। इसके तीन सभव कारण तो बताये ही जा सकते हैं- (1) बहुपत्नीत्व प्रथा के प्रति सामान्य महिलाओं में आतरिक अरुचि (2) वैधव्य के व्यक्तिगत और सामाजिक कष्ट और (3) महिलाओ की दासी आदि के रूप में विक्रयशीलता। इसके अन्य कारण भी अनुसधेय है। यह देखा गया है कि जैन साध्विया जैन सस्कृति एव चारित्र के परिपालन एन सरक्षण मे सदैव महत्वपूर्ण योगदान करती रही है। जैन श्राविकाये भी, अनेक कालगत प्रभाव दोषो के बाद भी, अन्य कोटि की महिलाओं से अच्छी स्थिति मे रही है। महावीर की इस उदारता का ही यह फल है कि उनका साध्वी सघ आज भी महत्वपूर्ण बना हुआ है। अन्य तत्रो मे यह सघ एक तो नगण्य है और फिर वह इतना महत्वपूर्ण भी नही है। महावीर का महिलाओ की समानता और पुरुषवत् सामर्थ्य का सिद्धान्त आज व्यावहारिक दृष्टि से भी प्रशंसनीय माना जाता है और अब तो इसे आनुपातिक राजनीतिक आरक्षण भी दिया जा रहा है। ऐसे ही अनेक सिद्धातो से महावीर के मतो की आधुनिक युग मे उपयोगिता प्रकट होती है। अनेक लोग जैन साहित्य में वर्णित कुछ विवरणो (उदाहरणों) के