Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

View full book text
Previous | Next

Page 83
________________ 82 / सर्वोदयी जैन तत्र नैतिक र र का व्यक्ति समाज एवं जगत के उन्नयन के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है । इसीलिये साधु-सन्तों को इतना आदर और मान्यता प्राप्त है। इसलिये जैन तत्र मे सर्व प्रथम व्यक्ति के बाहरी परिष्करण और आंतरिक उन्नयन के लिये अनेक उपयोगी व्यवहारिक उपाय सुझाये है। उनका अहिसा का मौलिक सिद्धान्त इस विषय मे पर्याप्त व्यापक अर्थ रखता है। यह सिद्धान्त अपनी अधारशिला मे मन, वचन और काय से मानव को विश्वबधुत्व के आदर्श के अनुरूप विश्वस्तरीय नैतिक व्यवहार की प्रेरणा देता है। यह शाकाहार से प्रारंभ होता है जिससे हमारे ग्रथिस्रावो की कोटि शान्तिमुखी और उदार मनोवृत्ति को जन्म देती है। यह विचारों और प्रवृत्तियो की शातिपूर्ण प्रगतिशीलता के लिये भीतरी और बाहरी उत्तम 'परिवेश का निर्माण करती है। इससे मानव मे प्रेम, करुणा एव स्नेहपूर्ण व्यवहार की प्रवृत्ति जागती है। वह सघर्षहीन जीवन की ओर उन्मुख होता है। अहिसक जीवन पद्धति का अनुयायी दूसरो को किसी प्रकार की हानि न पहुचे - इस दृष्टि से व्यवहार करता है। ऐसे व्यक्ति की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति सदैव विवेकपूर्ण, सहयोगपूर्ण एव सर्वोदयी होगी । (अ) पुरातन (कैरी ओव्हर) समस्यायें: जाति, कुल और धर्म • अहिसक जीवन पद्धति मे सभी मानव जाति एक है। उसमे जाति, कुल या धर्म सबंधी समस्याये उत्पन्न ही नही होनी चाहिये। जैनतत्र मे जाति प्रथा को कोई स्थान नही है, फलतः सभी प्राणी समान और भ्रातृत्व-सूत्रबद्ध माने जाते हैं । वस्तुतः मनुष्य के कर्म, व्यवसाय के नैतिक मूल्य और गुण ही उसके चरित्र और व्यवहार के निर्धारक है । फलतः जैनो मे जन्म -पर-आधारित जाति प्रथा नहीं है जो जातिवाद को जन्म देती है। जैन-तंत्र के अनुयायी समाज के सभी जातीय वर्गों से आते रहे है एवं उसे एकरूपता, समभावता, जीवतता तथा सामर्थ्य देते रहे हैं। इसके शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के अहिसक सिद्धान्तो के परिपालन ने जैनों को यह ख्याति दिलाई है कि वे ससार मे सर्वाधिक नैतिक मूल्यों के धनी हैं और उनमें अपराधवृत्ति न्यूनतम है। वास्तव में, जैनो को विश्व में जातीय, धार्मिक एवं अन्य संघर्षों की वृद्धि पर सहानुभूतिपूर्ण आश्चर्य होता है। संभवतः इन सघर्षो का कारण सबंधित वर्गों की स्वय की उत्तमता की धारणा है जो जैनो मे नही पाई जाती। जैनों के अनेक सप्रदायों के सैद्धान्तिक या

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101