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विदेशों में जैन धर्म /77.
भगवान पार्श्वनाथ के समय से लका में तो जैन मंदिरों एवं मठों की सूचना भी मिलने लगती है। महावीर के युग मे ईरान का राजकुमार आर्द्रक भारत आया था और जैन साधु बना था। इससे ईरान देश के राजकुल मे भी जैन प्रभाव सिद्ध होता है। सम्राट सिकंदर भी अपने साथ कल्याण मुनि को ले गया था। दुर्भाग्य से उनकी समाधि ईरान में हो गई थी पर अन्य साधु मिश्र तक गये थे। विन्सेंट स्मिथ ने बताया है कि सम्राट संप्रति ने अरब, ईरान तथा अन्य देशों में अनेक जैन साधु एव राजपुरुष जैनधर्म के प्रसार हेतु भेजे थे। कालकाचार्य द्वितीय ने भी अपने शिष्यों को धर्म प्रचार हेतु एशियाई देशो (सुवर्ण भूमि) मे भेजा था। इन्होने स्वय भी ईरान, जावा सुमत्रा आदि की पदयात्रा की थी। इन साधुओ एव राजपुरुषों के कारण है अनेक देशों मे आज भी जैन सस्कृति के अवशेष पाये जाते हैं। उसके सिद्धान्तो ने उन-उन क्षेत्रवासियो की जीवन शैली को प्रभावित किया है
इतिहास-निरपेक्षता की वृत्ति के कारण कालकाचार्य के बाद अनेक सदियों तक जैन साधुओ के भारत से बाहर जाने की सूचनाये प्राप्त नहीं होती, परन्तु जो विदेशी पर्यटक एव शासक यहा आये, वे अवश्य जैनसस्कृति से प्रभावित हुये और वे अपने अपने देशो में उसके सवाहक बने । यही नही, जैन व्यापारी गण तो सदैव ही समुद्रपार यात्राये करते रहे। फलतः साधुओ के अभाव में भी विदेशो मे विभिन्न भागो मे जैन सस्कृति के बीज पल्लवित होते रहे।
साधु और व्यापारी तो प्रमुखत. जैन आचार का वाहक है। जैन विचारो का सवहन और दार्शनिक चिंतन तो ब्रिटिश काल मे ही प्रभावी बन सका जब 1807 से कर्नल मेकेजी जैसे अनेक पाश्चात्य अन्वेषको एवं (दो दर्जन से भी अधिक) विद्वानो ने जैन धर्म और सस्कृति की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होन जैन विद्या के विविध अंगों का अध्ययन कर उसे विदेशी भाषाओ मे प्रस्तुत किया और उसे अध्ययन का विषय बनाया। उनके प्रयत्नो का ही यह सुफल है कि आज विश्व के प्राय. सभी महाद्वीपो मे जैन विद्याओ के शताधिक अध्ययन केन्द्र है, स्नातक एव स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम हैं, अनेक शोधकर्ता है और नयी शोधदिशाये उद्घाटित हुई है। यह विद्वन्-मडली ही सास्कृतिक प्रवाह की सर्वतोमुखी वाहिका होती है। _ विदेशी विद्वानों के अतिरिक्त, इस प्रवाह को गतिमान बनाने मे शिकागो में 1893 में सपन्न “विश्वधर्म ससद" में भाग लेने वाले एक मात्र