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जैन के कर्मकाड : विधि-विधान ओर पर्व 167 के तीर्थ क्षेत्र भारत के कोने-कोने में फैले हुए हैं। इनके कारण जैनतंत्र को न केवल समग्र भारतीयता प्राप्त होती है, अपितु जैन संस्कृति की जीवंतता का आभास भी होता है। इनसे जैन संस्कृति के विभिन्न रूपो के अखिल भारतीय महत्व एवं सामर्थ्य का भी प्रतिभास होता है।
9. जैनों के कर्मकांड : विधि-विधान ओर पर्व
मनोवैज्ञानिको ने मानव-मस्तिष्क की प्रकृति और उसके व्यवहारों का अध्ययन किया है। उनका यह मत प्रतीत होता है कि उत्सव और कर्मकांडों की पृष्ठभूमि मे ही धर्म-तत्र विकसित होते है। विभिन्न प्रकार के उत्सव या कर्मकाड व्यक्ति के समाजीकरण के साधन हैं, तंत्र-विशेष के सामाजिक एवं राजनीतिक प्रभाव के द्योतक हैं, मानव की मनोवृत्तियो एव विचारधाराओं के परिवर्तन के प्रतीक है और मानव की अतरंग कामनाओ के प्रकाशक है। वे मनुष्य के भौतिक कल्याण के लिये तथा धार्मिकता के सम्वर्द्धन के लिये पवित्र औषध है। ये कर्मकाड और उत्सव विश्व के प्रत्येक धर्मतंत्र के अनिवार्य अग है। इन्हें रूढ़ि मात्र कहना अपने अज्ञान को व्यक्त करना है। ये विधि-विधान कई रूपों में होते है। कुछ भक्तिवादी हाते हैं (पूजा, प्रार्थना, मत्रोच्चार, जप, स्तुति आदि), कुछ उत्सवपरक होते है (पच कल्याणक या अजनशलाका प्रतिष्ठा, मूर्तियो का अभिषेक और महाभिषेक, गजरथ-यात्रा, महापुरुषो के जन्म या निर्वाण दिवस आदि)। इनके अन्य रूपो मे कुछ मनःशुद्धिकारी, कुछ प्रायश्चितकारी और कुछ प्रशंसाकारी रूप भी होते हैं। ये सभी प्रकार के विधि-विधान सम्यक् दर्शन के प्रभावना नामक आठवे अग के विविध रूप ही माने जाते है। ये व्यक्ति को भी प्रभावित करते हे और समाज को भी प्रभावित करते हैं। ये व्यक्ति को बाह्य जगत से अन्तर्जगत की ओर ले जाते हैं। इनका प्रभाव परोक्षतः ही ज्ञात होता है। समाजशास्त्रियो का यह सामान्य मत है कि बुद्धिवादी लोग कुछ भी कहे, विधि-विधान और धर्म को पृथक नही किया जा सकता।
धर्म के इस समाजशास्त्रीय एव नैतिकता-वर्धक रूप के क्षेत्र मे जैन कैसे पीछे रह सकते है ? वे अन्य तत्रो की तुलना में अपने उत्सव और विधि-विधानो के कारण एक महनीय एव विविधतापूर्ण सांस्कृतिक तथा