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70/ सर्वोदयी जैन तंत्र
किये है। प्रारभ में, इन उपायो मे उपदेश श्रवण ही प्रमुख माध्यम था। इसके बाद पाठ्य सामग्री रची गयी। इस तरह श्रव्य के साथ पाठ्य माध्यम भी विचार सम्प्रेषण का घटक बना। दोनो ही माध्यमो में धार्मिक उद्देश्यों से प्रेरित कथा-कहानियों का अच्छा उपयोग किया गया। उत्तरवर्ती आचार्यों ने अनुभव किया कि सामान्य जनता के लिए श्रव्य एवं पाठ्य माध्यमों की अपेक्षा दृश्य एवं प्रतीकात्मक सप्रेषण मनोवैज्ञानिकतः अधिक प्रभावकारी विचार सम्प्रेषण माध्यम हो सकते है। उस युग मे दृश्य-श्रव्य माध्यमों का विकास नही हुआ था जो श्रव्य माध्यम से भी अधिक प्रभावकारी होते हैं।
दृश्य माध्यमो के रूप में जैनाचार्यों ने अनेक प्रतीकात्मक चित्रो द्वारा अपने सिद्धान्त समझाने के प्रयास किये। यह विधि अन्य तत्रो मे कम ही देखी जाती है। ये प्रतीकात्मक चित्र समझने के लिए लोकप्रिय एव दृश्य रूप मे व्यक्त किये जाते है । यह चित्र-अभिव्यक्ति जैनाचार्यों द्वारा सुविचारित रूप से विकसित एक युक्ति है जो आध्यात्मिक तत्वो का अतरग अर्थ समझने में सहायक होती है। इसके उपमान और रूपक गहन अर्थ को सरल और सुबोध बना देते है। यहा हम कुछ प्रतीकात्मक विचार संप्रेषक चित्रो का सक्षेपण देगे।
(अ) ऊँ, ओम, :--ओम् का प्रतीक अनेक तत्रो मे माना जाता है। इसके लिखने की विधिया भी अनेक है। विदेशी धर्म तत्रो मे इसे "आ-मैन" के द्वारा निरूपित किया जाता है। यह प्रतीक किसी भी प्रवृत्ति के आदि-अत मे विलगित या सम्मिलित रूप मे पढा जाता है। ध्यान क्रिया का प्रारभ तो ओम् ध्वनि के तीन बार पाठ से ही होता है। इसका पाठ शरीर की ऊर्जा को वहिर्गमित
चित्र 3 ओम् का चित्र होने से रोकता है एव साधना के लक्ष्य तक पहुचाता है। यह "सोऽह" और "अब-मन' का परिवर्धित और व्याकरणिक रूप है। ओम् की ध्वनि पूर्णता एव अनतता की प्रतीक है। जैनतत्र मे इसे पच परमेष्ठी का प्रतीक माना जाता है जो हमारे आदर्श