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जैन तत्र का इतिहास /57 अवरुद्ध है। दूसरी बात यह है कि कुछ जैन जातियों के लोग दिगबर और श्वेताबर दोनो पथों में पाये जाते है (ओसवाल, श्रीमाल, पल्लीवाल, पोरवाल, आदि)। यही नहीं, खण्डेलवाल और अग्रवाल के समान जातिया हिन्दू धर्मानुयायी भी होती है। सभवतः इसका कारण आचार्यों के उपदेश रहे होगे। इनके अनेक गोत्र भी समरूप होते है। जैनों की अनेक जातियों मे समान गोत्र भी पाये जाते है (परवार, गोलापूर्व, गोलालारे, आदि)। कुछ
जैन जातियो मे ब्राह्मणों के समान पाण्डेय आदि गोत्र भी पाये जाते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि विभिन्न समयो में ब्राह्मण वर्ग के लोग भी जैन बने होंगे। स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी मे एक जैन छात्र "जैन ब्राह्मण" जाति का था। इन सूचनाओ से यह स्पष्ट है कि जैन जातिवाद उदार रहा है। सभी वर्गों के लोग इसमें सम्मिलित हो सकते थे। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि जाति प्रथा का सबध सामाजिक व्यवस्था से है। इसमें धार्मिक मान्यताओ की स्वतत्रता है।
प्रत्येक जाति अनेक मूलो या गोत्रो में विभाजित है जिसके आधार प्राय पूर्वोक्त ही हैं। इनके आधार पर भी उनके बीच रोटी-बेटी सबंध होते है। प्रारम्भ मे सजातीय सम्बन्धो के कारण कुछ अनुदारता थी, पर समय के साथ इस प्रवृत्ति मे किचित् उदारता आने लगी है। इनमे कुछ जातियों के सदस्यो की संख्या लाखो मे है, तो कुछ की सैकडों मे ही है। दक्षिण की पचम जाति, ओसवाल, खण्डेलवाल, अग्रवाल, परवार एव श्रीमालों की सख्या पर्याप्त है। आजकल इन्ही के हाथो जैनों का नेतृत्व है।
प्रारम्भ मे प्रत्येक जैन जाति विशिष्ट क्षेत्रो म सीमित रही है। अनेक जातिया राजस्थान मे, अनेक मध्य प्रदेश में, अनेक गुजरात मे या महाराष्ट्र मे आज भी प्रमुखता से पाई जाती है। पर व्यवसाय प्रधान वृत्ति होने के कारण अनेक जातियों की यह क्षेत्र सीमा भग हो रही है और विभिन्न जैन जातियो के लोग भारत के विविध भागों में पाये जाते हैं। प्रायः सभी प्रमुख जैन जातियो के और समग्र जैन जाति के अनेक उद्देश्य-परक सगठन भी बने है जो जातिहित एव धार्मिक संरक्षण की प्रवृत्तियो को प्रोत्साहित करते है। अब अनेक जैन जातियो के इतिहास भी सामने आ रहे है। बीसवीं सदी मे यह स्पष्ट हो रहा है कि मध्य काल मे जातीय अनुदारता के अनेक रूप अब भूतकाल की बात बनते जा रहे हैं और जैन सस्कृति की प्रभावकता बढ़ती जा रही है।