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60/ सर्वोदयी जैन तत्र
कहते हैं। इसमे निरपेक्ष तत्व (निश्चयनय) की प्रधानता है। आचार्य कुदकुंद को इस पथ का प्रथम उद्घोषक माना जाने लगा है। इन पथो के अतिरिक्त, अनेक छोटे-मोटे अल्पस्थायी पथो ने भी जैन सघ मे जन्म लिया पर वे कभी भी महत्व न पा सके।
6. जैन आगम साहित्य
भारत मे जैन मुख्यधारा के महत्वपूर्ण अल्पसख्यक समुदाय के प्रतिनिधि है जो उसकी जनसख्या का लगभग 1 प्रतिशत है। भारतीय सस्कृति के विकास में उनका योगदान उनके संख्यात्मक अनुपात से कही अधिक व्यापक एव प्रभावकारी है। यह कहा जाता है कि जैन अपने आगम साहित्य, साधु, मन्दिर, सघ-बद्ध स्वरूप, तीर्थयात्रा एव अनेक विश्वकल्याण-- कारी प्रवृत्तियों के कारण ही, विषम परिस्थितियों मे भी, अपने को सुरक्षित, सरक्षित एव सवर्धित कर सके। आगम शब्द से उन पवित्र पुस्तको का बोध होता है जिनमे धार्मिक आचार-विचार सहिता एवं नैतिकता प्रेरक धर्मकथाये सग्रहीत हैं। ये न तो ईश्वरीय है और न ही ईश्वर-प्रेरित है। इनमे अन्तर्जगत के अनुभवो को प्राप्त करने वाले महापुरुषो के द्वारा उपदिष्ट लोकहित एव अध्यात्महित से सबधित वचनो का सार है। जैनो की मूलभूत आगम पुस्तके अन्य तत्रो की अपेक्षा अपनी विषयवस्तु के कारण विशिष्ट हैं। इनमे न तो कथात्मक वर्णन है, न इतिहास है और न ही पूजावदना आदि है। इनमे नैतिक और आध्यात्मिक उपदेश हैं जो मानव के लौकिक जीवन को समुन्नत करते है। जैनो के उत्तरवर्ती साहित्य मे अन्य तत्रों के . समान कथात्मक विवरण आदि सुबोध विधिया भी समाहित हुई है। जैनों का मूल आगम साहित्य चौथी सदी ई० पू० से पाचवी सदी ई० के बीच चार आगम वाचनाओ-पटना, (360 ई०पूर्व), कुमारी पर्वत (उडीसा, 180 ई० पूर्व), मथुरा-बलभी (315 ई० और बलभी (450-460 ई०)-के माध्यम से सकलित एव लिपिबद्ध किया गया है। कलिग वाचना ने दिगबर आगमकल्प ग्रन्थो का सकलन किया और अन्य वाचनाओ मे श्वेताम्बर-मान्य आगमो का सकलन एव लिपिबधन हुआ। इन आगमो के मूलकर्ता तो तीर्थकर (सर्वज्ञ) माने जाते हैं लेकिन उसे सूत्र और ग्रन्थ रूप में प्रस्तुत करने वाले उनकी परम्परा के गणधर और उत्तरवर्ती आचार्य माने जाते है।