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जैन तंत्र के भेद 159 भजन की प्रवृत्ति ने जैन-संघ के दोनों ही सम्प्रदायों में मूर्तिपूजा-विरोधी आन्दोलन हुये। वास्तव में ऐसे विचार मूर्तिपूजको की अनेक कर्मकाण्डी एवं तथाकथित पुण्यानुबधी पापात्मक प्रवृत्तियो के कारण सदियों से प्रगतिशील समुदाय के मन मे उभर रहे थे। इसके फलस्वरूप, 1450 के लगभग लोकाशाह (गुजरात) ने श्वेताबर सम्प्रदाय मे सर्वप्रथम स्थानकवासी (शास्त्रपूजक) उप-सम्प्रदाय की स्थापना की। इसके लगभग 100 वर्ष बाद, 1560 मे सत तारण स्वामी ने दिगबर सम्प्रदाय मे भी शास्त्रपूजक तारण पथ की स्थापना की । श्वेताबर स्थानकवासियो मे 1760 में आचार्य भिक्षु ने एक अन्य उपसंप्रदाय की स्थापना की जिसे तेरहपंथी कहा गया। यह सम्प्रदाय आज पर्याप्त महत्वपूर्ण स्थिति बनाये हुये है। ये अ-मूर्तिपूजक सम्प्रदाय शास्त्र/आगमो के पूजक हैं और श्वेताबरो मे तो इनकी सख्या एक तिहाई तक मानी जाती है। फिर भी, मूर्तिपूजा का सामान्य जन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव तो है ही। अत. इस सप्रदाय की महत्ता अब भी बनी हुई है। ___ वर्तमान मे, दिगबर. मूर्तिपूजको के दो सम्प्रदाय हैं-तेरहपथी (आगम पथी या तेरह चारित्र पालक) और बीस पथी। तेरहपंथी पूजन में सचित्त पदार्थों का उपयोग नही करते और न ही दूध आदि से अभिषेक करते हैं। बीसपथी सम्प्रदाय का अभ्युदय राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव है जब जैनो ने अपने सरक्षण हेतु हिन्दुओ के अनेक विधि-विधान अपनाये। दक्षिण और पश्चिम भारत में अधिकाश मे बीसपथी पाये जाते है। यहा यह ध्यान मे रखना चाहिये कि श्वेताबर तेरहपथी शास्त्रपूजक होते है जबकि दिगबर । तेरह पथी मूर्तिपूजक होते है।
इन पथो के अतिरिक्त, जैनो मे अनेक अन्य पथ भी हुये है। दूसरी - तीसरी सदी के लगभग यापनीय सघ का उदय हुआ था जिसके सिद्धान्त दिगबर-श्वेताबर मतो के समन्वय पर आधारित थे। यह मत मध्य काल तक जीवित रहा। अब यह सम्भावना है कि यह दिगबर पथ में समाहित हो गया। सोलहवी सदी में एक और जैन पथ का उदय हुआ जिसे अध्यात्म पथ कहते हैं। इसका प्रारंभ बनारसीदास ने किया था और बाद में इसे पंण्डित टोडरमल और कानजी स्वामी ने आगे बढाया। इस पथ मे दिगम्बर
और श्वेताबर दोनो परम्परावादी सम्प्रदायो के लोग सम्मिलित हुये है। इनकी सख्या पाच लाख तक बतायी जाती है। इस पथ को शुद्धाम्नाय भी