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• 62/ सर्वोदयी जैन तत्र
आगम-कल्प कोटि के ग्रथ मानते हैं-एक षट्खडागम है जो कर्म सिद्धान्त का विवरण देता है और दूसरा कषाय प्राभृत है जो कर्म प्रभावक कषायो को निरूपित करता है। इन दोनो की विषय वस्तु विलुप्त पूर्व आगमो से
ली गई है। इन दोनो ग्रन्थो की रचना दूसरी सदी के आसपास हुई है। . इसके अतिरिक्त, उत्तरवर्ती काल के भी अनेक ग्रन्थ इस कोटि मे माने गये
है। मालवणिया ने बताया है कि दिगबरो में आगमो के स्मृति-हास-जन्य क्रमिक विलोपन की दर श्वेताम्बरो की तुलना में काफी अधिक है। इस तथ्य के कारणो पर विचार करने की आवश्यकता है।
वर्तमान मे उपलब्ध आगम ग्रन्थो की मान्यता के विषय में जो भी स्थिति हो, यह स्पष्ट है कि यह साहित्य विशाल है। परिमाणात्मक रूप से इसके पदो की सख्या प्राय. एक काल्पनिक सख्या (21-1) है। इस साहित्य पर काकदृष्टि डालने पर यह अनुमान लगता है कि जैन तत्र की विविध अवधारणाओ, आचार-नियमो एव विचारसरणियों के विकास का एक अपना इतिहास है। इस दृष्टि से इनका अध्ययन सशोधको के लिये एक रोचक विषय है।
7. जैन कला और स्थापत्य
जैन प्राचीन काल से ही अपनी सास्कृतिक विरासत के लिये गौरवशाली रहे हैं। इनकी विविधा-भरी कला मे धार्मिक झुकाव है। प्रारम्भ से प्रमुखत. मूर्तिपूजक होने के कारण ये प्रतिमा-विज्ञान और मूर्ति-निर्माण कला के सशक्त विशेषज्ञ रहे है। उन्होने तीर्थंकरो की मूर्तिया विभिन्न वस्तुओ से (पत्थर, सगमरमर, धातु आदि) विभिन्न आकार-प्रकार और आसनो (खड्गासन पदमासन) मे बनाई है। उन्होंने चट्टानो मे भी मूर्तिया खनित की है। सभी मूर्तिया परिमाणात्मक सूक्ष्मता से बनाई गई हैं। उनकी आकर्षक ध्यानमुद्रा की आकृति है जो सासारिक जीवन से सफल निवृत्तिमार्गी जीवन की ओर मुडने को प्रेरित करती है। उनमे बहुतेरी मूर्तियो ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है-इनमे से एक कर्नाटक के श्रवणबेलगोला के भगवान् बाहुबली (983 ई०) की है और दूसरी बडबानी (म०प्र०) के भगवान् ऋषभदेव की है। ये अपनी ऊचाई और भव्यता के लिये विख्यात है। सभी जैन प्रतिमायें