Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 64
________________ जैन कला और स्थापत्य / 63 विधिवत् प्रतिष्ठित होने के बाद ही पूजनीय होती हैं। अप्रतिष्ठित एवं खडित मूर्तियो की पूजा नहीं की जाती। ये प्रतिष्ठा महोत्सव जैनों के विशिष्ट, भव्य और संस्कृति - सम्वर्धक सप्तदिवसीय आयोजन है जिनमे लाखों लोग भाग लेते है और धार्मिक कार्यों के लिये पर्याप्त आय होती है। इस सदी में ऐसे उत्सवो की आवृत्ति बढ़ रही है और समग्र भारत मे उनका प्रसार है। जैन मूर्तियां भारत के विभिन्न भागो मे प्रायः 400 ई० पूर्व से ही पाई जाती हैं। इनकी संख्या अगणित हैं। किसी भी संग्रहालय में विभिन्न मूर्तियों के अवलोकन से यह अनुमान लगाना सहज है कि मूल सामग्री एवं सौन्दर्य की दृष्टि से जैन प्रतिमा विज्ञान का विकास किस प्रकार हुआ है। गुजरात में पालीताना (शत्रुजय ) जैन प्रतिमाओ की विविधता और सौन्दर्य के लिये विख्यात है। प्रारभ में, प्रतिमायें दिगंबर और बिना चिन्ह केही बनाई जाती थीं। लेकिन बाद मे (4-5 वीं सदी) मूर्तियों पर प्रतीक अकित किये जाने लगे- सिंह (महावीर), फणयुक्त सर्प (पार्श्वनाथ) और वृषभ ( रिषभनाथ) आदि । कभी-कभी मूर्तियों के पादमूल मे प्रतीको के अतिरिक्त दोनो ओर अष्टमगल द्रव्य भी अकित किये जाते है। मूर्ति निर्माण कला में बाद में यक्ष-यक्षी के समान भक्त देवी-देवताओं (शासनदेवताओ) को भी अकित किया जाने लगा। इन प्रतिमाओ की विविधता भी मनोहारी है। कुछ प्रतिमाऐ चतुर्मुखी होती है। कुछ में चौबीसी होती हैं। अब नदीश्वर द्वीप आदि मे समवशरण की रचना भी समाहित की जाती है । मूर्तिनिर्माण कला का एक रूप तीर्थकरो या पूज्य पुरुषो के चरण चिन्हो के रूप मे भी पाया जात है। ये चरण चिन्ह उस पथ के पथिक बनने की ओर प्रेरित करने की ओर स्मरण कराते है जो हमे उत्तम सुख प्रदान करे । प्रतिमा विज्ञान के उत्तरवर्ती विकास काल मे सप्रदायगत पहिचान के लिये मूर्तियो को सज्जित एव चिन्हित रूप मे बनाया जाने लगा। ये मूर्तियां श्वेतांबर सम्प्रदाय मे पाई जाती है। इनको भी अंजन शलाका के समान उत्सवो के माध्यम से प्रतिष्ठित किया जाता है। जैन प्रतिमाओ के निर्माण की कला भारत के गुजरात और राजस्थान राज्यो मे बहुप्रचलित है और प्रतिष्ठित मानी जाती है। अब तो भारत मे

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