Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 57
________________ 56/ सर्वोदयी जैन तत्र कहा जाता है कि जातियो के निर्माण से समाज की सामूहिक सामाजिकता मे कमी आती है। यह तथ्य अशत ही सही माना जा सकता है। आज जैन समाज की जो सार्वत्रिक प्रभावकता है, वह इस मान्यता को समर्थन नही देती। प्रत्येक धार्मिक या सैद्धान्तिक महत्व के प्रकरणो में उपजातिवाद ने सदैव सामूहिक एकसूत्रता दिखाई है। कुछ समय पूर्व उपजातियो मे अनेक प्रकार की सामाजिक अनुदारताओं के लक्षण पाये जाते थे, पर समय के साथ अब उदारता के अनेक लक्षण प्रकट होने लगे है।। जैन का कथन है कि जैन उपजातियों का सूत्रपात कभी भी हुआ हो, पर उनका विकसित रूप छठवीं-सातवी सदी के बाद ही दृष्टिगोचर होता है। इसके बाद, इसके अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य भी मिलने लगते है। यह भी माना जाता है कि अनेक जैन जातियो का विकास राजस्थान क्षेत्र मे ही हुआ है जैसा सारणी 1 से प्रकट है। वर्तमान मे जैनो मे चौरासी जातिया मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि किसी समय पद्यावती नगर के श्रेष्ठी ने वैश्य महासभा के संगठन के लिये जैन समाज के सदस्यो को बुलाया। उसमे प्रारभ मे 84 स्थानो के सदस्य आये। प्रत्येक स्थान के सदस्यो को एक जातिका मानकर 84 जातियों की स्थापना की गयी। बाद मे इसमे अनेक जातियां और जुड गई। कासलीवाल और साग्वे आदि ने 84 की सख्या को प्रतीकात्मक माना है। वस्तत. यह सख्या काफी अधिक (237 तक) है। इनमे से अनेक जातिया कालप्रवाह मे विलीन हो गई हैं। फलत आज यह सख्या 84 से भी काफी कम होगी, ऐसा अनुमान है। दिगबर जैनो की जातियो का विवरण 15-18 वी सदी के बीच ब्रह्म जिनदत्त, जिनदास, विनोदीलाल, ब्रम्हगुलाल और वखतराम शाह ने दिया है। इन विवरणो मे पर्याप्त विविधता होते हुये भी 84 की सख्या की प्रामाणिकता स्वीकार की गई है। जैन जातियो के ऐतिहासिक सर्वेक्षणो से पता चलता है कि वर्तमान की अधिकाश जैन जातिया क्षत्रिय मूल की रही होगी जिन्होने महावीर के द्वारा उपदिष्ट अहिसक जीवन अपनाया। इनके जैनीकरण मे साधुओ एवं भट्टारको के प्रभावी उपदेश एव राजनीतिक परिस्थितिया भी कारण बनी है। वर्तमान मे एक-दो प्रकरणो को छोडकर नयी जातियो का निर्माण प्रायः

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