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38 / सर्वोदयी जैन तंत्र विवरण व्यवहार परमाणु की निरूपक हो। यही नहीं, ऐसा प्रतीत होता है कि जैन कर्मवाद के कर्म परमाणु या कर्म वर्गणायें आदर्श परमाणु से वृहत्तर हो और उनके समुच्चय से निर्मित हों जिन्हें मर्डिया ने कार्मन-कण कहा है। ये कार्मन कण वर्तमान मौलिक या अव-परमाणुक कणों में एक नये कण के रूप मे सहयोजित किये जाने चाहिये क्योंकि इनके विशिष्ट गुण होते हैं। ये सजीव तंत्रो से सयोजित होते हैं। इसी प्रकार, फाइनवर्ग ने मन के भौतिक स्वरूप को व्यक्त करने के लिये उसको "माइडोन" कणो से निर्मित बताया है। (ii) ऊर्जाओं का अन्योन्य परिवर्तन
जैन शास्त्रों मे ध्वनि, प्रकाश, ऊष्मा, ज्योत्स्ना आदि के रूप मे अनेक ऊर्जाओ का अनुसूचन एव विवरण है। ये ऊर्जाओ को कणिकामय मानते है यद्यपि वे सूक्ष्मतर होती है। इसका अर्थ यह है कि पदार्थ और ऊर्जा-एक ही द्रव्य के दो रूप है। इससे यह भी सकेत मिलता है कि जैनो की ऊर्जाओ की कणिकामयता की धारणा अठारहवी सदी के न्यूटन के युग के समकक्ष है। सापेक्षतावाद के नए सिद्धान्त ने इस पुरातन धारणा मे किचित् परिवर्तन किया है और ऊर्जाओं और कणो की प्रकृति को द्वैती माना है। इससे ऊर्जाओ के अन्योन्य-रूपातरण की धारणा को बल मिलता है जिसमें उच्च ऊर्जा का व्यय होता है। पदार्थ और ऊर्जा की कणिकामयता की जैन अवधारणा मे इस अन्योन्य-रूपातरण के बीज तो समाहित हैं ही। (iii) प्राकृतिक बल -
जैनो की यह मान्यता है कि प्रत्येक सजीव या निर्जीव तत्र मे एक सहज आन्तरिक बल या ऊर्जा निहित रहती है। इसके अतिरिक्त वे तीन । बल और मानते है-(1) मनोबल, आतरिक या आत्मबल (2)वचनबल या वाशक्ति और (3) कायबल या भौतिक बल। ये बल भी सजीव और निर्जीव-दोनो तत्रो मे पाये जाते है और अनेक रूपो मे अभिव्यक्त होते हैं। इनमे मनोबल तो सजीव तत्रो मे ही पाया जाता है, पर अन्य दोनों बल दोनो तत्रो मे पाये जाते है। वचन बल को ध्वनि या वचनो के रूप में लिया जा सकता है। यह आज के क्रियात्मक बल का एक रूप है। इसके एक रूप-मत्र बल से भी सभी परिचित हैं। यह वरदान और अभिशाप, सिद्धि ओर विनाश-सभी रूपो मे व्यक्त होता है। भौतिक बल दो प्रकार के बताये
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