Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 52
________________ जैन तंत्र का इतिहास 151 सदियों से लेकर पूर्व-मध्यकालीन ईसोत्तर सदियो के बीच आता है। आगम और आगमकल्प ग्रन्थो मे चरणानुयोग के साथ प्रथमानुयोग सबधी कथा साहित्य भी है। इसके साथ गुणाढ्य, विमल सूरि, हरिभद्र, संघदासगणि, स्वयंभू, उद्योतनसूरि, जिनसेन, गुणभद्र, पंप, पोन्न, रन्न, रत्नाकर, पुष्पदत्त, वीरनदि, हरिषेण, मल्लिषेण, वादीभसिह, हेमचन्द्र, मेधविजय आदि आचार्यों ने अनेक जैन महाकाव्यो, चपुओं, जीवनियों, पौराणिक एवं धार्मिक कथाओ को ललित रूप में प्रस्तुत किया है। इनके साहित्य में जैन संघ के 63-148 शलाका पुरुषो का मनोरम चरित्र पाया जाता है जिसका उद्देश्य श्रावको के नैतिक उत्थान को प्रेरित करना है। यह प्रथमानुयोगी साहित्य भी पर्याप्त विशाल है। इस साहित्य मे ललित साहित्य के वे अंग भी आते है जिनसे साहित्य का लालित्य प्रस्फुटित होता है। इन अगो मे व्याकरण, छदशास्त्र, रसशास्त्र, एव शब्दकोष की शाखाये आती है। इन क्षेत्रो मे पूज्यपाद, शाकटायन, कातंत्र, हेमचन्द्र, बुद्धिसागर, बाग्भट, धनजय, धरसेन और अन्य अनेक आचार्यों ने अनुपम योगदान किया है। इस साहित्य के अन्तर्गत एक विशेष प्रकार का विविधापूर्ण साहित्य भी समाहित होता है जिसमे स्तोत्र, पूजा, विधि, विधान आदि आते है। भद्रवाहु, मानतुंग, बादिराज, बसुनदि के समान अनेक आचार्यों ने अपनी रचनाओं के द्वारा न केवल विभिन्न युगो मे अचरजकारी धार्मिक प्रभावना की है, अपितु छदशास्त्र को भी आकर्षक एव समृद्ध बनाया है। ये सभी रचनाये भक्तिवाद की प्रेरक हैं। यहा यह ध्यान में रखना चाहिये कि उपरोक्त अनेक आचार्यों को उनके साधु-जीवन एव साहित्य-शिल्प की उत्तमता के कारण विभिन्न युगो मे राज्याश्रय भी प्राप्त रहा है। इससे वे जैन तत्र की सार्वजनिक प्रभावना मे अपना महनीय योगदान कर सके। इनमे से अनेक आचार्यों ने प्राकृत, सस्कृत के अतिरिक्त कन्नड, तमिल, तेलगू, गुजराती, हिन्दी आदि क्षेत्रीय भाषाओ मे भी अच्छा साहित्य लिखा है। इनकी नामावली, विस्तार भय से यहा नहीं दी जा रही है। फिर भी, यह जान लेना चाहिये कि जैनो के द्वारा निर्मित साहित्य दक्षिण भारतीय भाषाओ का मूलाधार रहा है। प्रथमानुयोग सबधी विशाल जैन साहित्य की ओर पश्चिमी विचारको का भी ध्यान गया

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