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जैन तंत्र का इतिहास / 53 विविधा से जैनाचार्यों की साहित्यिक प्रतिभा तथा तीक्ष्ण निरीक्षण एव विचार क्षमता का अनुमान होता है। जैनों की यह प्रतिभा पूर्वाग्रह-विहीन, सहिष्णुता-संवर्धक एव शातिपूर्ण सहअस्तित्व की मानसिकता से ओतप्रोत है। इसने बुद्धिवादी जगत को गरिमामय रीति से प्रभावित किया है। यही कारण है कि भारतविद्या का सम्पूर्ण अध्ययन जैन साहित्य के अध्ययन के विना सभव नही माना जाता।
यहा यह भी बता देना चाहिये कि जैन साहित्य के निर्माण मे न केवल प्राचीन काल के साधुओ ने ही भाग लिया है, अपि तु इसमे उत्तरवर्ती काल मे अनेक गृहस्थ श्रावकों ने भी महत्वपूर्ण योगदान किया है। इस दृष्टि से प० टोडरमल, बनारसीदास, राजमल, और आजकल के अनेक विद्वान् एव शोधकर्ता बहुतेरा साहित्य निर्मित कर रहे है। यही नहीं, अनेक पूर्वी और पश्चिमी जैनेतर विद्वानो ने भी अपने साहित्य के माध्यम से जैनतंत्र को प्रतिष्ठित एव प्रसारित करने तथा उसकी प्रभाविता बढाने मे बड़ा योगदान दिया है। इनकी सख्या निरतर बढ रही है।
जैन तंत्र का इतिहास : (स) सामाजिक इतिहास
भगवान महावीर के समय जैनों का समग्र संघ एक ही था। यह स्थिति पर्याप्त समय तक बनी रही। फिर भी, उनके दो भाग तो थे-(1) साधुसाध्वी और (2) श्रावक-श्राविका । हिन्दू समाज के अनेक वर्गों ने जैन मत अगीकार किया और उत्तरवर्ती काल मे भी उसकी अनेक जातियो ने अहिसक जीवन स्वीकार किया। महावीर के उत्तरकाल मे जब सघ के सदस्यो की सख्या पर्याप्त हो गई, तब उसकी समुचित व्यवस्था एव एकरूपता बनाये रखने के लिए सर्वप्रथम सघ और उसके अनुयायी अनेक गणो मे विभाजित हुये। बाद मे अर्हद्वलि के युग मे साधु-सघ अनेक उपसघों में विभाजित हुआ। यदि महावीरकालीन जैन साधु-संघ को मूलसघ माना जावे, तो उससे ही नदिसंघ, यापनीय सघ, द्रविड सघ, काष्ठा संघ, सिह संघ, सेन सघ एव देवसघ आदि विकसित हुये। इन सघों के अन्तर्गत अनेक गण भी विकसित हुये। इनमे देशीयगण, बलात्कारगण, काणूर गण, सूरस्थगण आदि प्रसिद्ध हैं। इनमें से अनेक गण दक्षिण भारत में ही स्थापित हुए हैं। इनका उल्लेख आचार्य परम्परा के विवरणों में भी किया , जाने लगा। साधुओं के ये गण और उपसघ विभिन्न आचार्यों के संरक्षण में