________________
52 / सर्वोदयी जैन तंत्र
है जिन्होंने इसकी गुणवत्ता और वर्णन विधा की उत्तमता की मुक्तकठ से सराहना की है। इस कोटि के साहित्य ने सामान्य जनो को जैनधर्म से प्रभावित होने मे तथा जैनो की धार्मिकता को अक्षुण्ण रखने में बडी सहायता की है।
करणानुयोग की कोटि के साहित्य के क्षेत्र मे जैनो का नाम सु-ज्ञात है । इस साहित्य के मूल बीज तो प्राचीन आगम एव आगमकल्प ग्रन्थों मे भी पाये जाते है लेकिन उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने विशिष्ट विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे है । इनमें ज्योतिष ( पादलिप्त सूरी 100 ई०), भूगोल ( उमास्वामी, 300 ई०), पद्यनदी, ( 1000 ई०), यतिबृषभ (500 ई०), गणित ( यतिवृषभ, महावीराचार्य, 800 ई०), चिकित्सा (पूज्यपाद, 500 ई०, उग्रादित्य 800 ई० ) शकुन विज्ञान (नरपति 800 ई०), स्वप्न विज्ञान (मलयप्रभ, 1200 ई०), मत्र शास्त्र (मुनि देव सूरि, 1300 ई०), सगीत (मडन मंत्री, 1300 ई०, पार्श्वचन्द्र 1400 ई०), कर्मवाद ( हितशर्मा, 200 ई०, चन्द्रर्षि, 500 ई०, नेमिचन्द्र चक्रवर्ती, 1000 ई०, देवेन्द्र सूरी माधवचन्द्र, त्रैविद्य एव यशोविजय गणि 1800 ई०), मणिशास्त्र (ठक्कुर फेरू, 1315 ई०), हस्तरेखा विज्ञान और अन्य तकनीकी एव कला विषयों के ग्रन्थ समाहित होते है । इस साहित्य का समुचित अन्वेषण और अध्ययन आज के वैज्ञानिक युग मे पर्याप्त वाछनीय है ।
द्रव्यानुयोग की चतुर्थ कोटि मे तत्वविद्या, प्रमाणशास्त्र, दर्शन एव अन्य संबधित विषय आते है। इसके अन्तर्गत अच्छा साहित्य उपलब्ध है । यह बुद्धिवादी कोटि का साहित्य है। यह जैन तत्र के सिद्धान्तों को तार्किक समर्थन देता है। कुद-कुद, समतभद्र, अकलंक, विद्यानद, सिद्धसेन दिवाकर, प्रभाचद्र, मल्लवादी, हरिभद्र, हेमचन्द्र, यशोविजयगणि आदि आचार्यों ने जैन तत्व विद्या और न्यायविद्या को प्रतिष्ठित किया है। इस कोटि के अनेक प्राथमिक ग्रन्थो के अग्रेजी अनुवाद भी हुए है और प्रगत ग्रन्थो के अग्रेजी अनुवाद की योजना चलाई जा रही है।
जैन साहित्य के विकास के इतिहास में योगदान करने वाले जैन विद्या मनीषियो के साहित्य का सर्वेक्षण करने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि अपने साहित्य मे उन्होंने असाप्रदायिक एव तर्कपुष्ट विचारधारायें प्रस्तुत की है। हां, धार्मिक साहित्य मे उन्होंने अवश्य जैन आचार-विचार विद्या को बुद्धिवाद एव अनुभव के आधार पर संपुष्ट किया है। इस साहित्य की