________________
जैन तंत्र का इतिहास / 49* अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बनाये हैं जो जैनतंत्र के प्रसार की दिशा में कार्य ही । न करें, अपितु नयी पीढ़ी को मार्गदर्शन भी दें। यह इसी सदी के आठवें दशक की बात है कि महावीर की पच्चीससौवीं निर्वाम्गशती पर शासन के सहयोग से हमारे देश में जैनतंत्र की प्रभावना का वातावरण बना, जैन विद्याओं पर स्थान-स्थान पर सगोष्ठियां हुई और अनेक स्थानों पर जैन विद्या एवं प्राकृत के पाठ्यक्रम चालू हुये। यह परम्परा अब भी चल रही है। जैनतंत्र के अध्येताओं एव अनुसधाताओं की संख्या देश-विदेशों में निरंतर बढ़ रही है।
भारतेतर देशो में संप्रदाय-निरपेक्षता के वातावरण ने परोक्षरूप से व्यापार, शिक्षा एवं व्यवसाय के लिये गये जैनों ने जैनतत्र के व्यापकीकरण प्रयत्नों को प्रोत्साहन दिया है। वहा मदिर बने हैं, जैन केन्द्र और पुस्तकालय खुले हैं। जैन विद्या के स्नातक एव स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम चालू हुए हैं। इससे पाचो महाद्वीपो मे जैनेतरो की जैनतत्र मे रूचि निरंतर बढ़ रही है। इस प्रकार अब यह तत्र प्रत्यक्ष राजकीय संरक्षण के बिना भी राष्ट्रीय और अतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हो रहा है।
जैन तंत्र का इतिहास : (क) साहित्यिक इतिहास
जैन तंत्र के प्रसार में प्राचीन, मध्यकालीन एव आधुनिक साधु-सतो एव विद्वानो ने अधिक महत्वपूर्ण योगदान किया है। फिर भी, इस तथ्य से इकार नहीं किया जा सकता कि राजकीय संरक्षण एवं सहयोग ने विविध प्रकार के साहित्य निर्माण की गति को उत्प्रेरित किया है। यह माना जाता है कि प्रथम सदी के आचार्य आर्यरक्षित ने विभिन्न प्रकार के जैन साहित्य को चार वर्गों में (अनुयोगो) में विभाजित किया : (1) प्रथमानुयोग : त्रेसठ शलाका पुरुषो एवं अन्य महापुरुषों की
जीवनी, धार्मिक पौराणिक कथाये, वर्णनात्मक साहित्य, कथा साहित्य, ललित साहित्य, करणानुयोग : तकनीकी साहित्य, लाक्षणिक साहित्य, अ-ललित
साहित्य, (3) चरणानुयोग : नैतिक एंव चारित्र सम्बन्धी उपदेश और साहित्य (4) ब्यानुवोग : तस्वविद्या, प्रमाणविद्या और दर्शन कुछ ग्रन्थों में इन अनुयोगो के नाम भिन्न भी दिये हैं। अनेक जैन