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• 48/ सर्वोदयी जैन तत्र
अस्तित्व रख सके। इसी युग मे उत्तरमध्य काल में जैनो में मूर्तिपूजक. के बदले शास्त्रपूजक पंथों का उदय हुआ। इनमें श्वेताम्बर शास्त्रपूजक तो पर्याप्त सख्या में आज भी अपना अस्तित्व बनाये हुये है। इसके विपर्यास में, दिगम्बरो में शास्त्र-पूजको की संख्या आज भी स्वल्प है। इसी बीच दिगबरों मे मुनि प्रथा हृास मे आ गई और भट्टारक प्रथा चल पड़ी। राजस्थान और अन्य क्षेत्रो मे भट्टारको को राजवशी संरक्षण मिला और असख्य मूर्तियां प्रतिष्ठित की गई। ये भट्टारक प्रायः यथास्थितिवादी रहे और उन्होने शास्त्र रचे, अनुवाद किया और इनकी सुरक्षा के लिये भडार बनाये। श्वेताबर पंथ मे भी नवजीवन आया और मुस्लिम आक्रमणों के भय से तथा अहिसक जीवन के प्रति रुझान से अनेक क्षत्रियो ने जैन धर्म अगीकार किया। यह राजस्थानी जैनों के गोत्रो से पता चलता है। यही नहीं, मुनि हीरविजय जी के समान अनेक दिगंबर और श्वेताबर साधुओं की चर्चा और प्रभाव से आकृष्ट होकर अकबर के समान राजाओ ने अहिसा धर्म की प्रभावना मे योगदान किया। पर ऐसी घटनायें अपवाद रूप में ही लेनी चाहिये। मुस्लिम काल में मूर्तिभजको के आतक के समान अनेक विषम परिस्थितियो मे भी जैन व्यक्तिनिष्ठ बने रहे और अपने को सुरक्षित बनाये रहे।
ब्रिटिश शासनकाल मे सभी संप्रदायो के प्रति व्यापक उदारता की भावना एव धार्मिक स्वतत्रता की प्रवृत्ति ने जैन तत्र को सरक्षित बने रहने मे तो योग दिया पर उसका विशेष सवर्धन नहीं हो सका। भारत के स्वतंत्र होने पर संप्रदाय-निरपेक्षता की नीति अपनाई गई। इससे जैन धर्म भी लाभान्वित हुआ। भारत शासन ने जैनों के अनेक राष्ट्रीय महत्व के पचकल्याणको, महाभिषेक महोत्सवों के आयोजन में सक्रिय रूप से सहायक होकर न केवल जैन शासन की गरिमा ही बढाई, अपितु जैनतंत्र की सजीवता को भी जागृत कर दिया । बाहुबली अभिषेक महोत्सव का दूरदर्शन पर अखिल भारतीय प्रसारण इसका एक उदाहरण है। इससे इस काल में जैन अधिक जागरूक हुए है। उन्होने भारतेतर-भाषाओ मे नवसाहित्य का प्रणयन एव प्राचीन साहित्य का अनुवादन किया है। इससे जैनो मे जैनतंत्र के विश्वस्तरीय प्रसार की मनोवृत्ति विकसित हुई है। जैनो ने अनेक प्रकार की शैक्षणिक सस्थाये, शोध सस्थाये और अब तो विश्वविद्यालय भी खोले है जो जैन सस्कृति के राजदूत प्रमाणित हो रहे हैं। उन्होने राष्ट्रीय और