Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 47
________________ 46/ सर्वोदयी जैन तंत्र एवं गणों से निकटतः सम्बन्धित थे। प्रायः इन सभी ने और उनके उत्तराधिकारियो ने पूर्वी भारत में जैनतत्र की बड़ी प्रभावना की और उसे. लोकप्रिय बनाया। यही कारण है कि उन दिनो महावीर के लगभग साढ़े तीन लाख अनुयायी थे। महावीर की निकट और दूरवर्ती शिष्य परम्परा के अनेक आचार्यों के भी उत्तर, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण (यहा तक कि श्री लका) के अनेक समसामयिक राजतंत्रों के संबंध रहे है। उत्तर भारत के जैन-धर्म सवर्धक कुछ राजा और राजवशों में श्रेणिक बिंबसार, अजातशत्रु, नन्दवश, चन्द्रगुप्त मौर्य, सप्रति, मित्रवश, गुप्त-राजवंश, हर्षवर्धन, आमराज, यशोवर्मन, प्रतिहार एव चदेलवश, मुगल राजवंश, अकबर और अन्य राजा प्रमुख है जिन्होंने जैन संस्कृति, कला और स्थापत्य को समुन्नत बनाया। जैनो की लोकप्रियता के लिये अशोक, गुप्तवश आदि के काल कष्टकर भी रहे जब उन्हे मगध छोडकर अन्य क्षेत्रो मे जाना पड़ा। इन्होने अपना मगध निष्क्रमण ऐसे दो मार्गों से किया जिसके कारण जैन-तत्र को आने वाले समय मे भारत में चारो ओर फैलने के अवसर मिले। इनका पहला मार्ग कलिंग (उडीसा) होकर दक्षिण की ओर जाता था। दूसरा मार्ग मथुरा, उज्जैन ओर गुजरात के माध्यम से दक्षिण के दूसरे भाग को पहुचाता है। दोनो ही मागों से दक्षिण मे जैन-तत्र पहचा। इसीलिये यह सदियो तक • जैनधर्म का सुरक्षित एव सरक्षित गढ बना रहा। इन दोनों ही मागों से पार होते समय इन क्षेत्रो के सामान्यजनों ने इन्हे सहयोग और प्रेरणा अवश्य दी होगी। ईसापूर्व दूसरी सदी के बगाल और कलिग के राजवशो ने जैनों को अच्छा सरक्षण दिया। इसी के फलस्वरूप खारवेल के समय कुमारी पर्वत पर लगभग 180 ई० पू० मे जैन-साधु-सम्मेलन (बाचना) हुआ था। इसे . दिगवर बाचना कहा जा सकता है, पर इसका विवरण उपलब्ध नहीं है। यह सरक्षण, यद्यपि, अधिक समय तक नही रहा, फिर भी, इसका प्रभाव दीर्घकाल तक बना रहा। आज भी इन क्षेत्रो में जैन मूर्तियो एव स्थापत्य के. अवशेष इस तथ्य को पुष्ट करते हैं । यहा की सराक जाति इस सस्कृति की जीवत प्रतीक है। ईसापूर्व कुछ सदियों से लेकर पाचवी-छठी सदी तक मथुरा, उज्जैन और बलभी (गुजरात) के क्षेत्र जैनतत्र के प्रभावशाली सरक्षक रहे। इस क्षेत्र में स्वेतवार प्रदाय का अच्छा विकास हुआ। आचार्य शीलगुण सूरि

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