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जैन तत्र का इतिहास / 45 लौकिक ही है, जो कार्य-कारणवाद के सिद्धान्त पर आधारित है पर इसमें लचीलापन अधिक है। यह नियतिवाद के बदले पुरूषार्थवाद पर भी बल देता है। यह मनुष्य को अपने भाग्य का स्वयं विधाता बनाता है और उसमे शिवत्व प्रस्फुटित करता है। इसके लिये शास्त्रीय दस कर्म-प्रकमों में से पांच (उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, संक्रमण और उदय) प्रक्रम महान . उपयोगी हैं। ये ही मानव के पुरुषार्थ के प्रतीक हैं। __नवीनतम शोधों के अनुसार मानव जीवन की विविधता मात्र कर्ममूलक नही है। इसमे अन्य अनेक कारक भी सहयोगी बनते हैं। कर्म की मात्र व्यक्तिनिष्ठता को अशत. समूहनिष्ठता से भी सहचरित मानने की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इससे अनेक जटिल समस्याओ के समाधान में सरलता हुई है। साथ ही, ज्ञान-दर्शनादि के क्षेत्र मे अपार वैज्ञानिक प्रगति के कारण इस सदी मे सामान्यतः कर्मों का सामूहिक क्षयोपशम उन्नत हुआ
4. जैन-तंत्र का इतिहास : (अ) राजकीय संरक्षण
संख्यात्मक दृष्टि से जैन तत्र भारत एवं विश्व का एक अल्पसंख्यक तत्र है (1-0 प्रतिशत)। फिर भी, यह विश्व के विभिन्न भागों में व्यापक रूप से सप्रसारित हुआ है। इसके प्रसार में व्यापारियो, साधुओं, राजवंशो ने महत्वपूर्ण योगदान किया है और धर्मान्तरण की मनोवृत्ति का आश्रय लिये बिना ही इसे लोकप्रिय बनाया है। इसे लगभग महावीरोत्तरकालीन 1800 वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रो एव कालो में राजकीय एंव राजनीतिक संरक्षण मिला जिससे इसने बहु-आयामी विस्तार पाया और यह दीर्घजीवी बना। यद्यपि जैन सिद्धान्तो मे विश्व स्तर पर लागू होने की क्षमता है, फिर भी इस तंत्र में अन्य धर्मों की तुलना मे जनमानस को क्यों आकर्षित नहीं किया, यह विद्वानों के लिये महन अनुसंधान का विषय है।
जैन-तत्र के इतिहास को सुव्यवस्थित रूप से जानने के लिये उसे कम से कम तीन शीर्षकों के अन्तर्गत विचारित करना चाहिए-(1) राजकीय सरक्षण (2) साहित्यिक सर्वेक्षण और (3) सामाजिक सर्वेक्षण । इनके आधार पर ही संक्षेप मे जैनतत्र के इतिहास का वर्णन किया जायेगा।
महावीर इस दृष्टि से बड़े भाग्यशाली थे कि वे समसामयिक राजवशो