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सिद्धान्त और विधियां अनुमोदित की है जो वर्तमान वैज्ञानिको और
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जैन तत्र की वैज्ञानिकता / 43
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मनोवैज्ञानिकों उत्तरकाल में विकसित की हैं। आध्यात्मिक विकास की श्रेणी को "साप-सीढी" के लोकप्रिय क्रीडा चित्र के चित्र 2 गुणस्थान निदर्गन के लिए सांपसीढ़ी एक रूप मे दिया गया है। इस क्रीडा चित्र 2 के अनेक रूप पाये जाते हैं। आध्यात्मिक विकास की इस श्रेणी की परिकल्पना जैनेतर तंत्रो में लगभग नही पाई जाती । यह मनोवैज्ञानिक आधारो पर विकसित की गई है। यह जैनाचार्यों की तीव्र अतर्निरीक्षण शक्ति की बौद्धिक अभिव्यक्ति है । उन्होने इसके विभिन्न स्तरों पर अनेक अशुभ कर्मों के विलयन को परिमाणात्मक रूप मे भी दिया है। इसकी मनोवैज्ञानिक प्रयोगो के आधार पर पुष्टि अपेक्षित है। यह पुष्टि इस श्रेणी की अपूर्वता को ही प्रकट करेगी। (v) कर्मवाद का विज्ञान
निम्नतर
जीव
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उच्चतर
जीव
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ससार मे जीव जगत की विविधता अचरजकारी है। यह अनेक दृष्टियोंइन्द्रिय, गति, सज्ञा, लिंग, पद, समृद्धि, ज्ञान, आदि अनेक अन्वेषण द्वारो ( मार्गणाओ) से परिलक्षित होती है । ईश्वरवादी तत्रों ने इसे ईश्वर - प्रेरित माना, फिर कर्मफल माना । अनीश्वरवादी जैनो ने इसे मात्र कर्मफल माना । इस प्रकार "कर्म" की धारणा प्राय. सभी भारतीय तंत्रों मे है, पर जैनतत्र मे उसका विशिष्ट अर्थ और विवरण- न केवल गुणात्मक रूप से अपितु परिमाणात्मक रूप से भी उपलब्ध है। प्रारंभ में केवल अशुभ कर्मों का त्याग ही सुख का मार्ग रहा होगा। बाद मे शुभ कर्म / शुभ मनोभावो को भी पुण्य मार्ग माना गया। अब कर्मवाद मे दोनों प्रकार के कर्म (कुछ का परिहार, कुछ का परिपालन) समाहित होते हैं। कर्मवाद की अनेक विशेषतायें कुछ संबधित अनुच्छेदों 2-7-8 एवं 4 ब स मे दी गई है। उनका पुनरावर्तन न कर अन्य सूचनाये यहा दी जा रही हैं।
जैन तत्र में "कर्म" अदृश्य एव सूक्ष्मतम आदर्श परमाणुओं का पिण्ड माना जाता है। ये संसार मे सर्वत्र व्याप्त हैं। जो कर्म-परमाणु जीव के