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40 / सर्वोदयी जैन तत्र
केवल जीव की उच्चतर दशा का ही प्रावधान है। साथ ही, जैन-तंत्र विभिन्न सजीव स्पीशीज का निम्नतर से उच्चतर स्थिति की ओर क्रमिकं विकास की अवधारणा का सपोषण भी नही करता। उसके अनुसार, विभिन्न स्पीशीज अनादिकाल से विद्यमान है ।
जैनो मे कर्मबल के सम्बन्ध में एक अन्य अवधारणा भी पाई जाती है। वह यह है कि यह बल प्रायः व्यक्तिनिष्ठ ही होता है। नयी खोजो से "समूह निष्ठता की धारणा भी प्रवीजित हो गई है। इस पर गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
इसके विपर्यास मे, वैज्ञानिक केवल भौतिक बलो का ही विवरण देते है - गुरुत्वाकर्षण बल, विद्युत् चुम्बकीय और न्यूक्लीय बल । यदि बलों को ऊर्जा के समकक्ष माना जाय, तो जैनो ने केवल न्यूक्लीय ऊर्जा को सकेतित नहीं किया है यदि इसे आंतरिक ऊर्जा के एक रूप से भिन्न माना जावे । अन्य बलो का प्रत्यक्ष/परोक्ष सकेत जैन शास्त्रो मे पाया जाता है। इसके अतिरिक्त, जैनो के मनोबल और कर्मबल की मान्यता से बल सबंधी उनकी मान्यता वैज्ञानिको की तुलना में अधिक समग्र हो गई है।
(iv) आध्यात्मिक या नैतिक विकास का विज्ञान
सामान्यत. जैन तत्र मे जीवन का अर्थ मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाशीलता से है। यह मनोवैज्ञानिको की द्विधा मानसिक एव कायिक क्रियाशीलता के विपर्यास मे है। यह क्रियात्मकता प्राणियो में संहजतः विद्यमान आतरिक ऊर्जा की अभिव्यक्त की विविधरूपता का प्रतीक है । लेकिन यह ऊर्जा पूर्णतः अभिव्यक्त नही हो पाती क्योकि सासारिक जीवन मे वह सदैव वीर्यान्तराय (ऊर्जा की अभिव्यक्ति मे विघ्नकारी) कर्म से आवरित रहती है। यह कर्म सचित ( बद्ध), प्रारब्ध (वर्तमान में प्रकट) और क्रियमाण ( वर्तमान कर्म) के रूप में जीव के ऊर्जा एव अन्य गुणो को विकसित नही होने देता। यह क्रियात्मकता दस या सोलह प्रकार की सहज या अर्जित सज्ञाओ (आहार आदि, कषाय आदि, ज्ञानादि) के कारण होती है जो आनुवंशिक, अन्तर्ग्रहीत आहार, हार्मोन स्राव, परिवेश एव मनोभाव आदि भौतिक और मनोवैज्ञानिक कारणो से विविध कोटि की होती है। इसकी दो कोटिया प्रमुख हैं- शुभ और अशुभ। शुभ क्रियात्मकता स्वय के लिये तथा समाज के लिए हितकारी होती है। अशुभ क्रियाओ की