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24/ सर्वोदयी जैन तंत्र मनोविज्ञान की अनेक शाखाओ का निदर्शक है जिसके अन्तर्गत ज्ञान,.. दर्शन, व्यक्तित्व, मनोभावो आदि का प्रयोगविहीन युग मे सुन्दर विवेचन हुआ है। यह शरीरतत्र और शरीर क्रियाविज्ञान का भी निरूपक है। अब तो इसके रहस्यो को तंत्रिका-विज्ञान के माध्यम से भी समझाया जा सकता
8: जैनतत्र का मूल आधार सर्वजीववाद है। यह संसार की सभी वस्तुओं में मौलिक सजीवता स्वीकार करता है जबतक उन्हे शस्त्र प्रतिहत (उबालना, काटना, जलाना, शस्त्र-क्रिया आदि) न किया जाय । तथापि, ससार के सभी प्राणियो मे यह सजीवता एकसमान नहीं होती। यह परिवर्ती होती है। यह अजीव पदार्थों में शून्य होती है और मुक्त जीवो मे अनत होती है। अन्य प्राणियों मे इसकी कोटि मध्यवर्ती होती है। जैन तत्र के सिद्धान्त और अनुप्रयोग विभिन्न प्राणियो को अपनी सजीवता की कोटि मे सवर्धन करने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते है। इसके लिए कार्मिक घनत्व D. (Karmic Density) की कोटि को उच्चतर (पापमय जीवन) से निम्नतर (पुण्यमय जीवन) की ओर प्रवाहित कर उत्परिवर्तित करना आवश्यक है। फिर भी, यह माना जाता है कि सजीवता की उच्चतर कोटि या पवित्रता केवल मानव जीवन के माध्यम से ही सम्भव है। इस जीवन का प्रारम्भ पर्याप्त निम्नतर कार्मिक धनत्व D. से ही होता है।
9: जैनतत्र के अनुसार, प्राणियो की चार गतियाँ मानी जाती है-नरक, देव, पशु और मनुष्य । इसमे मुक्त जीवो की गति को पंचम गति भी माना जा सकता है। इन गतियो का आधार कार्मिक धनत्व का क्रमिक अल्पीकरण तथा भावात्मक शुद्धता का वृद्धिकरण ही है। इसका यह अर्थ है कि जीवो की भावात्मक शुद्धता कार्मिक घनत्व, D के विलोम अनुपात में होती है। वस्तुत., भावात्मक शुद्धता धार्मिकता के समानुपात में होती है, फलतः धर्मिकता R भी D के विलोम अनुपात मे होगी।
अर्थात्, भावात्मक शुद्धता « .
उच्चतम या अनत सुख की स्थिति प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि कार्मिक घनत्व प्रायः शून्य हो जाये जिससे भावात्मक शुद्धता या उच्चतम सुख, अनत हो जाय । फलत. यदि सुख, H को निम्न प्रकार परिभाषित किया जाय,