Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 32
________________ जैन तत्र की वैज्ञानिकता /31 अभ्युक्ति भी चल निकली है कि विज्ञान के बिना धर्मतंत्र अंधा माना जाता है। इस प्रकार "विज्ञान" धर्मतन्त्रो के अन्तर्दर्शन के लिये आंख का काम करता है। वर्तमान युग वैज्ञानिक धर्म मे ही रुचि रखता है। अ. जैन तंत्र में वैज्ञानिक दृष्टि का पल्लवन विज्ञान का क्षेत्र क्या है और क्यो है' मे सीमित हैं जबकि धर्मतन्त्रों का क्षेत्र "क्या होना चाहिये" की दृष्टि देती है। इस तरह, विज्ञान धर्म के क्षेत्र को उपगमित करता हुआ प्रतीत होता है। आइस्टीन ने सच ही कहा है थोडा-सा विज्ञान हमे धर्म से दूर करता है लेकिन कुछ अधिक विज्ञान हमें पुनः धर्म की ओर ले जाता है। __जैनतत्र अनीश्वरवाद की धारणा से प्रारंभ होता है। इसलिए इसमे किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि यह जगत की घटनाओं और समस्याओ के विवेचन मे वैज्ञानिक क्रियापद्धति अपनाता है और अपनी वैज्ञानिकता व्यक्त करता है। वस्तुतः जैन यह अनुभव करते है कि मानव पहले वैज्ञानिक है क्योकि वह अपना जीवन बाह्य जगत के प्रथम दर्शन से प्रारभ करता है। वह धार्मिक तो बाद मे होता है जब वह अन्तर्जगत की ओर ध्यान देता है। जैन आचार्यों ने प्रारम्भ से ही व्यक्ति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के प्रयास किये हैं। इसकी पहली पवित्र पुस्तक "आचाराग" मे कहा गया है कि आचार्य दृष्ट, श्रुत, अनुभूत एवं सुविचारित सत्य को कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को बुद्धि और प्रज्ञा के माध्यम से सीखने के लिये जिज्ञासु बनना चाहिये। उत्तराध्ययन मे भी धर्म के सिद्धान्तों को प्रज्ञा एव बुद्धि से परीक्षित कर स्वीकृत करने की बात कही है। कुद-कुद ने भी अपने अनुभूत सत्य को अन्यथा पाये जाने पर सशोधित करने की बात कही है। समतभद्र और सिद्धसेन दिवाकर, हेमचन्द्र और आशाधर आदि ने भी विभिन्न युगो मे यही सदेश दिया है। उन्होने तो शास्त्रो की प्रामाणिकता के सिद्धान्त भी बताये हैं। अच्छे शास्त्र अविसवादी होने चाहिये, प्रत्यक्ष (पारमार्थिक ओर साव्यवहारिक) और अनुमान (तर्क बुद्धि आदि) से बाधित नहीं होने चाहिये। उन्हे यथार्थ विवेचक, असंदिग्ध और विरोध रहित होना चाहिये। वे यह भी आशा करते है कि प्रत्येक श्रावक को बुद्धिमान एव प्रज्ञाबान होना चाहिये। जैनतत्र की यह परीक्षा-प्रधानी वृत्ति ही इसके अनुयायियों के दृढ विश्वास का मूल आधार रही है और यही

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