Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 35
________________ 34/ सर्वोदयी जैन तत्र बहुदृष्टिकोणी विधि बोहर के पूरकता सिद्धान्त का भी आधार है जैसा मुनिश्री और कोठारी ने स्पष्ट किया है। इसके बावजूद भी, जैन वैज्ञानिक अनिश्चायकतावाद के सिद्धान्त से आगे चले गये है, जब वे यह कहते हैं कि वस्तुतत्व का वास्तविक स्वरूप वर्णनातीत या अवक्तव्य है। इस तथ्य को उन्होने सप्तभगी के चौथे विकल्प के रूप में स्वीकार किया है। अनेकातवाद की इस अवधारणा को गणितीय रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है। यदि वास्तविक सत्य T (Truth) हो और दृष्टिकोणों को P (Aspects) मानलिया जाय, तो संत्य अनत दृष्टिकोणों का सम्मलित रूप होगा, अर्थात् SPdp = T = 0 . . .. .. . .. (11) इससे यह सकेत मिलता है कि वास्तविक सत्य तो एक ही है पर वह अवक्तव्य (0. शून्य) है। इसी के विकल्प के रूप मे, सप्तभगी के आधार पर एक अन्य समीकरण भी दिया जा सकता है : S Pdp = T = 24 . . .......... ..(12) जहा वस्तुतत्व के 24 पैरामीटर वास्तव मे समाधेय नही है। इससे भी सत्य की अवक्तव्यता प्रकट होती है। हाल्डेन और महलनबोईस ने साख्यिकीय दृष्टि से भी यह सिद्ध किया है कि वास्तव मे वस्तु के अध्ययन की दृष्टिया सात ही सम्भव हैं : +3+3. = (3+3+1) = 7...... ..... ..... .(13) लेनिन के समान क्रातिकारियो ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है। इस विषय मे विशेष जानकारी के लिये पाठको को मुनिश्री, मुखर्जी, कोठारी एव हालडेन की पुस्तके और शोध पत्र पढ़ना चाहिये। ज्ञान की सापेक्षता और प्रत्येक दृष्टिकोण की आंशिक सत्यता के सिद्धान्त के अनेक लाभ स्पष्ट है। इससे व्यक्ति और समाज मे सहिष्णुता

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