Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 36
________________ जैन तत्र की वैज्ञानिकता / 35 की भावना विकसित होती है, एक-दूसरे को समझने का भाव उत्पन्न होता है । यह शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिये बौद्धिक भूमिका प्रदान करता है। अब तो इसकी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय उपयोगिता के भी विविध रूप सामने आ गये हैं। ज्ञान की सापेक्ष प्रकृति के प्रकरण में यह ध्यान में रखना चाहिये कि यह मात्र इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होने वाला ज्ञान है। इसे मति या सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त, ज्ञान के कुछ अतीन्द्रिय रूप भी होते हैं जिन्हे शास्त्रो में अवधि (क्लेयरवायंस), मनः पर्यय (टेलीपैथी) और केवल (एब्सोल्यूट) ज्ञान कहा जाता है। इनके अतिरिक्त, प्राचीन आचार्यों एवं केवलज्ञानियो द्वारा रचित आगम या शास्त्र भी ज्ञान के स्रोत है और वे भी श्रुत ज्ञान के रूप में माने जाते है। शास्त्रो में श्रुत की परिभाषा एव प्रामाणिकता का अच्छा विवरण है। यह इन्द्रियजन्य ज्ञान का उत्तरवर्ती रूप है। इस प्रकार, जैन तत्र मे पाच ज्ञानों की परम्परा है। इनमें केवल ज्ञान को छोडकर अन्य चार ज्ञान तो प्रयोग पुष्ट भी हो गये हैं (दो पूर्णत और दो अंशतः) । इनके आधार पर केवल ज्ञान की सभावना बहिर्वेशित की जा सकती है। हा, इन्द्रियज ज्ञान में अब सूक्ष्म या स्थूल उपकरण - जन्य ज्ञान भी समाहित होता है। स. जैन तर्कशास्त्र जैन ग्रन्थो में इन्द्रियो और उपकरणों के माध्यम से होने वाले ज्ञान के अनेक रूप बताये गये हैं। इनमें स्मरण (मेमोरी), प्रत्यभिज्ञान (रिकग्नीशन) और तर्क ज्ञान ( लोजिक) महत्वपूर्ण है। यह माना जाता है कि भौतिक जगत की घटनाओ के ज्ञान मे प्रत्यक्ष एव परोक्ष इन्द्रियों के निरीक्षण और उनकी बौद्धिक एवं तर्कशास्त्रीय परीक्षा महत्वपूर्ण है । यद्यपि शास्त्रों में कहा गया है कि यह ज्ञान अनुमानित ही होता है, फिर भी सामान्य जन के प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये इससे अच्छा विकल्प नही है। इस ज्ञान के चार वैज्ञानिक चरणों का सकेत ऊपर किया जा चुका है। इस ज्ञान के माध्यम से ही व्यक्ति परोक्ष या तर्कशास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करता है। जैन तर्कशास्त्रियों ने निरीक्षणों से निष्कर्ष प्राप्त करने के लिये अनुमान की पंच प्रकारी विधा (सिलोगिज्म) विकसित की है। कोई व्यक्ति पवर्त पर धुवां देखता है। इस t

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