Book Title: Sarvodayi Jain Tantra
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Potdar Dharmik evam Parmarthik Nyas

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Page 30
________________ जैन तत्र के सिद्धांत /29 आते हैं क्योंकि व्यक्ति ही समाज का मूल होता है। समाज व्यक्तियों का समुदाय ही तो है। यदि व्यक्ति भौतिक एव भावात्मक चरित्र में विकसित है, तो उनसे बने समाज में भी अच्छे गुणों की गरिमा विकसित होगी। साथ ही, समाज मे साधुओं और गृहस्थों का अनुपात प्रायः 4-5/10,000 के रूप मे बहुत समय से स्थिर रहा है। इससे समाज के धार्मिक एवं सांस्कृतिक उन्नयन मे साधुओं की महत्ता स्पष्ट होती है। 12. व्रतों का अभ्यास करते समय जैन गृहस्थों को जैनों के विशिष्ट आध्यात्मिक गणित का अनुभव होता है जहां गुण-सख्याओ का योग उनके गुणनफल के प्रभावी रूप में होता है। यह स्थिति व्यक्तिगत, सामाजिक एवं आध्यात्मिक, तीनो स्तरो पर पाई जाती है . (अ) सम्यक् (दर्शन + ज्ञान + चारित्र) = सम्यक् (दर्शन x ज्ञान x चारित्र)........... (ब) श्रम + स्वावलबन + समानता = श्रम x स्वावल बन x समानता.............. ...................(8) (स) अहिसा + अनेकात + अपरिग्रह = अहिसा x अनेकात xअपरिग्रह या, अ + अ + अ = अ. ..................(9) 13. जैनो को वर्गीकरण, परिमाणीकरण एव वर्हिवेशन प्रक्रियाओ का विशारद माना जाता है। धार्मिक क्षेत्र मे, उन्होने मूलभूत हिसा के 108 भेद बताये जा है और विभिन्न व्रतो अजय, के 243 अतीचार या उपाध्याय, 25 अतिक्रम बताये है। साथ, 36 इसके विपर्यास मे, पाकि, 11 उन्होने सद्गुणो का निक, 817 भी वर्गीकरण किया 8 2040 6080 100 120140160 180 है। उन्होने पाच गुण, सख्या परमेष्ठियो के 108. गुण बताये है। इन चित्र 1. मनुष्य की विविध अवस्थाओं में गुण गुणो के स्मरण एव पल्लवन के लिये अथवा पूर्वोक्त 108 दोषो के निवारण जंत, 461 - -

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