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28 / सर्वोदयी जैन तत्र भी, इन व्रतों के परिपालन से वह ऐसी दिशा की ओर प्रवृत्त होता है जहां उसकी सासारिक एव अशुभ कार्यों में रुचि कम होने लगती है।
जैनतंत्र में साधु-सस्था को पूर्ण-सयमी कहा जाता है। उसकी मानसिकता शुद्धतर होती है। उसके लिये व्रतो का परिपालन सूक्ष्मतर और व्यापक होता है, अतिक्रम-विहीन होता है। साधु की आतरिक ऊर्जा भी वर्धमान होती है। प्रत्येक साधु को सघ मे विशिष्ट प्रक्रिया एवं परिवार जनो की अनुमति से ही दीक्षित किया जाता है। इनके व्रत और चारित्र सामान्य गृहस्थो के समान ही होते है पर उनके परिपालन में अधिक सूक्ष्मता होती है। इसलिये वे “महाव्रत" कहलाते है। उदाहरणार्थ, सामान्य गृहस्थ की अहिंसा मे दृश्य जीवो का पीडन-निरोध या स्थूलता समाहित है जबकि साधु की अहिंसा मे दृश्य, अदृश्य और सूक्ष्म-सभी प्रकार के जीवो का-यहां तक कि एकेन्द्रिय वनस्पतियों का भी हिसन वर्जित है। साधुओ को चलनेफिरने, बात-चीत करने, उपकरणो को उठाने-धरने, मलोत्सर्जन करने तथा आहार ग्रहण करने में बहुत सावधानी बरतनी पडती है। उन्हें अपनी मानसिक एव शारीरिक क्रियाओ मे भी सचेतता बरतनी पड़ती है। उन्हे, साधु अवस्था मे अनेक प्राकृतिक उपसर्गो एव क्षुधा-तृषा आदि बाईस भौतिक या मानसिक परीषहो को सहने का अभ्यास करना पड़ता है। इन सावधानियों के समुचित अभ्यास को मानसिकत प्रबल बनाने के लिये (i) उत्तम क्षमादि दस धर्मो का पालन-जो अणुव्रतो के ही विस्तार हैं, (ii) अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओ का चितन, (ii) अनेक अभ्यतर और बाह्य तथ्यो का अभ्यास जिनमे कुछ और आहार नियत्रण के उपाय रहते है जो दीर्घजीविता के लिए आवश्यक है और जिनसे कठोर साधना करने की क्षमता प्राप्त होती है, (iv) विभिन्न प्रकार के आसन और ध्यान तथा (v) समता-उत्पादी चरित्र के अनेक रूपो का अभ्यास भी करना पडता है। इन अभ्यासो से न केवल अंतरग ऊर्जा की वृद्धि ही होती है, अपितु उसका साद्रित एक-दिशीकरण भी होता है जिससे व्यक्ति मे ईश्वरत्व के गुणो का पल्लवन होता है। सक्षेप-मे, शास्त्रो में बताया गया है कि प्रत्येक साधु को चौदह-चरणी अध्यात्म विकास की श्रेणी पर आरूढ़ होने के लिये 28-36 गुणो को, अनुभव से, विकसित करना पड़ता है जिससे अन्त मे उसे उच्चतम सुख की प्राप्ति होती है।
चाहे गृहस्थ हो या श्रावक, उसके सभी अनुपालन व्यक्तिगत श्रेणी में