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26/ सर्वोदयी जैन तत्र प्रकार की अभिव्यक्तियो की एकरूपता ही महात्माओ का लक्षण बताया गया है। फिर भी, मानसिक अहिसा अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है।
अनेक विचारको ने अहिसा पर कायरता आदि के आरोप लगाये हैं। यह तथ्य नही है। सामान्य जीवन मे हिसा चार रूपो में व्यक्त होती है। (1) दैनिक कार्य, घरेलू कार्य, (2) औद्योगिक या आजीविका सबधी कार्य (3) विरोध-समाधान एव (4) सकल्पजन्य हिंसा। इनमे सकल्पजन्य हिसा को छोडकर अन्य रूप कम बलबान है। इसलिए जैन तत्र मे सकल्पजन्य हिंसा या मानसिक भावो को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वस्तुत, मन ही हमारे धार्मिक जीवन की सद्गति एव दुर्गति मे निमित्त बनता है।
11 अब समस्या यह है कि D या P को इस उपभोक्तावाद के युग मे कैसे कम किया जाय ? इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये जैनो ने सर्वाधिक बुद्धि-सगत, वैज्ञानिक एव मनोवैज्ञानिक उपाय सुझाये है। ये निवृत्ति-प्रधान विधेयक उपाय है। इनके अन्तर्गत अनेक स्वैच्छिक नियत्रण एव अनेक सकारात्मक गुणो का पल्लवन आता है। इनसे नये कर्मों का आश्रव नियत्रित होता है और कुछ सचित कर्मों की निर्जरा होती है। इससे कार्मिक घनत्वा यथेच कोटि तक कम हो जाता है।
महावीर बीसवी सदी के मनोवैज्ञानिक सप्रसारण/विज्ञापन कार्यक्रमो से भी उच्चतर कोटि के विज्ञापक थे। उन्होने अपनी अध्यात्मवादी विचारधारा के विक्रय के लिये वर्तमान ससार को पूर्णत. ही दुखमय उद्घोषित कर दिया जिससे उनकी विचारधारा अभ्यन्तर और बाह्य तप और अन्य उपायो के आश्रय से कार्मिक धनत्व को कम करने के लिये सर्वोत्कृष्ट मानी जा, सके।
जीवन को सुन्दरतम बनाने के लिये, उन्होने अपने संघ को प्रजातात्रिक व्यवस्था दी और उसे चतुर्विध सघ का नाम दिया। इसके अन्तर्गत श्रावक श्राविका, साधु और साध्वी समुदाय लिये गये। उन्होंने बताया कि सामान्य गृहस्थ क्रमश. तीन चरणो मे सुधर सकता है-(1) सामान्यजन या पाक्षिक चरण (2) नैष्ठिक चरण (3) साधक चरण। पाक्षिक श्रावक के च.ण मे व्यक्ति को 8 या 35 (मूल-गुण या मार्गानुसारी गुण) मूलभूत चारित्र के नियमो का पालन करना पड़ता है जिसमे सात्विक भोजन, भोजन की पद्धति पर नियत्रण (शाकाहार, अवमौदर्य आदि) और ईमानदारी का जीवन