________________
"
जैन तंत्र के सिद्धांत / 23 इनकी संख्या सीमित भी हो सकती है और असीमित भी हो सकती है। बुरी कषायें अवाछनीय होती है और दुःख और अतृप्ति को जन्म देती है।
यह विश्व विविध प्रकार की कषायों की क्रीड़ा स्थली है। इनके कारण सुख-दुख होते हैं। फलतः यह विश्व सुख-दुख का मिश्रण है। धर्मतंत्रों का लक्ष्य दुखों का अल्पीकरण एव शून्यकरण है और सुखों का वहवीकरण या अनंतीकरण है। फलतः, धार्मिकता R कषायो के विलोम अनुपात में होती है । इस तथ्य को गणितीय रूप में प्रस्तुत करने पर
Hoc R x 1/p.
..(2)
6. धर्म-तत्रो ने संसार को चक्रीय भंवर माना है। इसमे कषायो, उपलब्धियो, मूर्च्छा आदि के केन्द्रमुखी बल इस प्रकार कार्य करते हैं जिनसे पुनर्जन्म की प्रक्रिया अविरत बनी रहे। इसके विपर्यास में, यहां व्रत, तप आदि के भौतिक और भावात्मक बल केन्द्रापसारी के रूप में काम करते है जिनसे उपरोक्त केन्द्रमुखी बलों का प्रभाव सतुलित हो जाये। यह स्पष्ट है कि जब तक केन्द्रापसारी बलो का मान केन्द्रमुखी बलों से अधिक नही हो जाता, उच्चतम सुखमयता या मुक्ति सभव नही होगी । अर्थात्, पूर्ण सुखमयता के लिये,
विरागता आदि के केन्द्रापसारी बल > कषाय आदि के केन्द्रमुखी बल ..(3)
7. जब प्राणी कषाय-मुक्त हो जाता है, तब उसमे ज्ञान, दर्शन, सुख एव वीर्य की अनत चतुष्टयी प्रकट होती है। सामान्य अवस्था मे इन गुणो के पूर्णरूप से प्रकट न होने का कारण यह है कि प्राणी सदैव भौतिक क्रियाओ और मनोवैज्ञानिक भावों से सपृक्त रहता है। ये प्रक्रियाये परिवेश मे विक्षोभ उत्पन्न करती है जहा चारो ओर अव- परमाणुक कार्मन-परमाणु व्याप्त रहते हैं। इन क्रियाओं के कारण संसारी जीव चुबक के समान हो जाता है और इन कार्मन- परमाणुओ को आकृष्ट करता है। इसके कारण जीव भारी या लघु कोटि के कर्मबंध करता है। इस कारण ही जीवो की विभिन्न कोटियां और गतियां होती है। जैनो का यह कर्मवाद गतिशील, आशावादी और उत्परिवर्तनशील है । यह अन्य तत्रो के समान नियतिवादी नहीं है। इसमे पुरुषार्थ का महत्वपूर्ण स्थान है। यह मनुष्य को भावात्मक शुद्धता की श्रेणी पर आरोहण और अवरोहण कराता है। यह वर्तमान आदतो के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त का प्राचीन रूप है। यह कर्मवाद वर्तमान