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खण्ड-३, गाथा-५ सत्त्वादेर्हेतोः निश्चेतुमशक्यम् क्षणिकतया सर्वार्थानां साधयितुमभिलषि(त)त्वात् सपक्षस्यैवाभावात् ।
साध्यस्य तन्मात्रानुबन्धः स्वभावहेतोर्विशेषलक्षणम् क्षणक्षयस्य चाऽनध्यक्षत्वात् तत्र सोऽपि नाध्यक्षतो निश्चितः। नाप्यनुमानात् तन्निश्चयः अनवस्थाप्रसङ्गात्।
तत्कार्यताऽवगमः कार्यहेतोरपि विशेषलक्षणम् । न च क्षणिक(व)स्तुकार्यतया किञ्चित् प्रसिद्धं वस्तु, प्रत्यक्षाऽनुपलम्भसाधनत्वात् तस्याः। न च क्षणिकस्य किञ्चित् कार्य सम्भवति। तथाहि- न विनष्टात् 5 कारणात् कार्यजन्म असतोऽजनकत्वात्। नाप्यविनष्टात्, व्यापारालीढस्य द्वितीयक्षणावस्थितेर्जनकत्वे क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गात् निर्व्यापारस्य च शशशृंगवदजनकत्वात् कार्य-कारणयोरेककालताप्रसक्तेः। है जिसे सपक्ष (= उदा०) के रूप में दिखाया जा सके। जब सपक्ष नहीं तो ‘सपक्ष में सत्ता' लक्षणांश लिंग में घटेगा कैसे ? [ क्षणिकता अनुमान के लिये तीनों हेतु व्यर्थ ]
10 उपरांत, हेतु के तीन प्रकार बौद्धमान्य हैं, १-स्वभाव, २-कार्य, ३-अनुपलब्धि। उन में से स्वभाव हेतु यहाँ निरवकाश है। कारण, स्वभाव हेतु का विशेष लक्षण है - साध्य का हेतुमात्र से अनुबन्ध यानी तादात्म्य होना। किन्तु यहाँ क्षणिकता साध्य प्रत्यक्षविषय न होने से उस का तादात्म्य भी सत्त्व हेतु में प्रत्यक्ष से निश्चित नहीं हो सकता। अनुमान से भी वह निश्चित नहीं हो सकता क्योंकि उस अनुमान के साध्य का हेतु के साथ तादात्म्यादि निश्चित करने के लिये और एक अनुमान जरूरी बन जायेगा, 15 उस अनुमान के लिये भी और एक अनुमान.. इस प्रकार अन्त ही नहीं आयेगा ।
[ कार्य और अनुपलब्धि हेतु के विशेषलक्षण का निरसन ] २ – कार्य हेतु का विशेषलक्षण है साध्यजन्यता का निश्चय । परिस्थिति ऐसी है कि क्षणिकवस्तु(साध्य) के कार्यरूप में कोई पदार्थ ही सिद्ध नहीं है। कार्यरूप से पदार्थ की सिद्धि, प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ यानी प्रसंग और विपर्यय से होती है। इन के आधार पर यहाँ क्षणिक अर्थ का कोई कार्य सिद्ध 20 नहीं होता। देखिये- जब सोचते हैं कि विनष्ट कारण (क्षण) से कार्य (क्षण) उत्पन्न होगा या अविनष्ट क्षण से ? असत् पदार्थ कार्यजनक नहीं होता, विनष्ट कारण तो असत् है, अतः उस से कार्योत्पत्ति असम्भव है। यदि अविनष्ट कारण से, तो मतलब यह हुआ कि प्रथम क्षण में कारण अपनी उत्पत्ति में व्यग्र होगा, दूसरे क्षण में विनष्ट नहीं होगा किन्तु कार्योत्पत्ति अनुकूल व्यापार करेगा, तभी वह तीसरे क्षण में कार्योत्पादक बनेगा, किन्तु यहाँ द्वितीय-तृतीयादि क्षणों में कारण की अवस्थिति रह 25 जाने पर क्षणभंगवाद का ही अवसान हो जायेगा। यदि वह विना व्यापार ही कार्योत्पत्ति करेगा, तब तो विना व्यापार शशशृंग भी कार्योत्पत्ति कर सकेगा, किन्तु विना व्यापार शशशृंग कार्योत्पत्ति नहीं कर सकता तो कारणक्षण भी कार्यजनक नहीं हो सकता। विना व्यापार कार्योत्पत्ति मानने पर तो कारण स्वक्षण में ही कार्योत्पत्ति कर बैठेगा - अतः कारण-कार्य समानकालीन हो जाने की आपत्ति आयेगी।
ॐ
1. स्वभावः स्वसत्ताभाविनि साध्यधर्मे हेतुः ।।१६।। (न्या.बि.द्वि.प.पृ.१८-१९)
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