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कलश २
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'यहाँ सरस्वती की मूर्ति को आशीर्वचन रूप से नमस्कार किया है। लौकिक में जो सरस्वती की मूर्ति प्रसिद्ध है, वह यथार्थ नहीं है; इसलिए यहाँ उसका यथार्थ वर्णन किया है । सम्यग्ज्ञान ही सरस्वती की सत्यार्थ मूर्ति है । उसमें भी सम्पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है, जिसमें समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भासित होते हैं । वह अनन्तधर्म सहित आत्मतत्त्व को प्रत्यक्ष देखता है, इसलिए वह सरस्वती की मूर्ति है और उसी के अनुसार जो श्रुतज्ञान है, वह आत्मतत्त्व को परोक्ष देखता है, इसलिए वह भी सरस्वती की मूर्ति है और द्रव्यश्रुत वचनरूप है वह भी उसकी मूर्ति है, क्योंकि वह वचनों द्वारा अनेक धर्मवाले आत्मा को बतलाती है ।
इसप्रकार समस्त पदार्थों के तत्त्व को बतानेवाली ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकान्तमयी सरस्वती की मूर्ति है । इसीलिए सरस्वती के वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी इत्यादि बहुत से नाम कहे जाते हैं ।
यह सरस्वती की मूर्ति अनन्त धर्मों को 'स्यात् ' पद से एक धर्मी अविरोध रूप से साधती है, इसलिए सत्यार्थ है। कितने ही अन्यवादी जन सरस्वती की मूर्ति को अन्यथा स्थापित करते हैं, किन्तु वह पदार्थ को सत्यार्थ कहनेवाली नहीं है ।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्मा को अनन्त धर्मवाला कहा है; सो उसमें वे अनन्त धर्म कौन-कौन से हैं?
उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि वस्तु में अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, इत्यादि धर्म तो गुण हैं और उन गुणों का तीनों काल में समय-समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त हैं ।
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और वस्तु में एकत्व - अनेकत्व, नित्यत्व - अनित्यत्व, भेदत्वअभेदत्व, शुद्धत्व - अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं । वे सामान्यरूप धर्म तो वचनगोचर हैं, किन्तु अन्य विशेषरूप अनंत धर्म भी हैं, जो कि वचन के विषय नहीं हैं, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं। आत्मा भी वस्तु है, इसलिए उसमें भी अपने अनन्त धर्म हैं ।
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