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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
कविने आँखें बंद किये हुए कहा- देवि, क्या भक्तके प्रति दया की ? क्या इतने दिनों के बाद आज दर्शन देने आई ?
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एक सुमधुर कण्ठसे उत्तर मिला - कवि, हाँ मैं आई। शेखरने चौंककर आँखें खोल दीं। देखा कि शय्याके समीप एक सुन्दरी रमणी खड़ी है।
वे मृत्युसमाच्छन्न डबडबाई हुई आँखोंसे साफ नहीं देख सके । उन्हें मालूम हुआ कि मेरे हृदय की वही छायामयी प्रतिमा अन्दर से बाहर आकर मृत्युके समय मेरे मुँहकी ओर स्थिर नेत्रों से देख रही है ।
रमणीने कहा- मैं राजकन्या अपराजिता हूँ ।
कवि सारी शक्ति लगाकर उठ बैठे ।
राजकन्या ने कहा --- राजाने तुम्हारा उचित निर्णय नहीं किया । वास्तवमें तुम्हारी ही जीत हुई है। इसीलिए, कविवर, मैं आज तुम्हें जयमाला पहनाने आई हूँ । यह कहकर अपराजिताने अपने गले से अपने हाथों गूँथी हुई पुष्पमाला उतार कर कविके गले में पहना दी । मरणासन्न after शरीर शय्यापर गिर गया ।