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अतिथि
ही मन तारापदसे बहुत अधिक विद्वेष करने लगी । माता पिताको भी उसने पूरी तरह से उद्विग्न कर दिया । भोजनके समय वह रोना - सा मुँह बनाकर थाली अपने श्रागेसे खिसका देती थी । उसे भोजन अच्छा ही नहीं लगता था । कभी कभी वह दासीको भी मार बैठती थी । तात्पर्य यह कि सभी बातों में वह बिना कारण ही झगड़ा बखेड़ा किया करती थी । तारापदकी विद्या उसका तथा और सब लोगोंका जितना ही अधिक मनोरंजन करने लगी, उसका क्रोध भी उतना ही अधिक बढ़ने लगा । उसका मन यह बात स्वीकृत करनेके लिए तैयार ही नहीं था कि तारापदमें किसी प्रकारका कोई गुण है । और जब इस बात के
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अधिकाधिक प्रमाण मिलने लगे कि उसमें कुछ गुण हैं, तब उसके सन्तोषकी मात्रा और भी अधिक बढ़ गई। जिस दिन तारापदने लव और कुशके भजन सुनाये थे, उस दिन अन्नपूर्णाने मनमें सोचा था कि संगीत से वनके पशु भी वश में हो जाते हैं; इस लिए आज कढ़ाचित् मेरी कन्याका मन भी कुछ शान्त हो गया होगा । इस लिए उसने उससे पूछा भी था - चारु, तुम्हें ये गीत कैसे लगे ? पर चारुशशिने उसके इस प्रश्नका कोई उत्तर नहीं दिया और बहुत जोरसे सिर हिला दिया । यदि उसकी इस भंगीका भाषामें अनुवाद किया जाय, तो उसका यही अर्थ होगा कि मुझे यह सब जरा भी अच्छी नहीं लगा और न कभी अच्छा लगेगा ।
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अन्नपूर्णाने समझ लिया कि चारुके मनमें इर्ष्याका उदय हुआ है, इसलिए उसने चारुके सामने तारापदके प्रति अपना स्नेह प्रकट करना बन्द कर दिया । सन्ध्याके समय जब चारु जल्दी ही भोजन करके सो जाती थी, तब अन्नपूर्णा नावकी कोठरीके दरवाजेपर आ बैठती थी । मोती बाबू और तारापद दोनों दरवाजेके बाहर बैठते थे और अन्नपूर्णाके अनुरोधसे तारापद गीत और भजन आदि आरम्भ करता था ।