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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
समान नवीन और उज्ज्वल हो उठे । मेरा हृदय और मेरा संसार देवतासे परिपूर्ण हो गया। मैं सिर नीचे करके लोटने लगी । मैंने कहा-हे देव, मेरी आँखें चली गईं, यह बहुत ही अच्छा हुा । तुम तो मेरे हो ।
हाय, मुझसे भूल हो गई । तुम मेरे हो, यह भी स्पर्धाकी बात है। मुझे तो केवल यही कहनेका अधिकार है कि मैं तुम्हारी हूँ । एक दिन गला दबाकर मेरे देवता यह बात मुझसे कहला ही लेंगे। कुछ भी न रह जाय, पर मुझे तो रहना ही पड़ेगा। और किसीके ऊपर तो मेरा कोई जोर है नहीं , केवल अपने ऊपर ही जोर है । ___ कुछ दिन बहुत ही सुखसे कट गये । डाक्टरीमें मेरे स्वामीकी प्रसिद्धि होने लगी। हाथमें कुछ रुपए भी आ गये ।
परन्तु रुपया कोई अच्छी चीज नहीं है। उससे मन श्रावृत हो जाता है । मन जिस समय राजत्व करता है, उस समय वह अपने सुखकी श्राप ही सृष्टि कर सकता है । पर जब सुख-संचयका भार धन ले लेता है, तब फिर मनके लिए और कोई काम नहीं रह जाता । पहले जिस जगहपर मनका सुख रहा करता था, उस जगहपर माल अस. बाब पाकर अपना अधिकार कर लेता है। उस समय सुखके बदले केवल सामग्री ही मिलने लगती है। ___मैं किसी विशेष बात अथवा किसी विशेष घटनाका उल्लेख नहीं कर सकती ; परन्तु या तो इस कारण कि अन्धोंमें अनुभवकी शक्ति अधिक होती है और अथवा किसी ऐसे कारणसे जिसे मैं नहीं जानती, मैं बहुत अच्छी तरह समझने लग गई कि धनके बढ़ने के साथ ही साथ मेरे स्वामीमें भी परिवर्तन होने लगा है। यौवनके प्रारम्भमें मेरे स्वामीमें न्याय-अन्याय और धर्म-अधर्मके सम्बन्धमें जो एक प्रकारका वेदना-बोध था ; वह दिनपर दिन बधिर-सा होता जाता है। मुझे अच्छी तरह याद है कि वे पहले कभी कभी कहा करते थे कि