Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 179
________________ दृष्टि-दान १७३ सम्भव था कि मैं संसारको ठीक उसी रूपमें समझती और पहचानती जिस रूपमें वह वास्तवमें है। एक दिन मेरे स्वामीने भी मुझसे यही बात समझाकर कही। उस दिन सबेरे एक वृद्ध मुसलमान अपनी पोतीके हैजेकी चिकित्सा कराने के लिए उन्हें बुलाने आया । मैंने उसे कहते हुए सुना - डाक्टर साहब, मैं बहुत गरीब हूँ, पर खुदा आपका भला करेगा ! मेरे स्वामीने उत्तर दिया-खुदा जो कुछ करेगा, सिर्फ उसीसे तो हमारा काम चल नहीं सकता । इसलिए पहले यह बतलाओ कि तुम क्या करोगे ? सुननेके साथ ही मैं सोचने लगी कि ईश्वरने मुझे अन्धा तो कर दिया, पर बहरा क्यों न किया ? वृद्धने गहरी साँस लेकर कहा-या खुदा ! केवल यही कहकर वह चला गया। मैंने उसी समय मजदूरनीके द्वारा उसे अन्तःपुरकी खिड़कीके पास बुलवाया और कहा-बाबा, तुम्हारी पोतीके इलाजके लिए मैं तुम्हें ये रुपये देती हूँ। तुम मेरे स्वामीके लिए मंगल-प्रार्थना करो और इसी महल्लेके हरीश बाबू डाक्टरको ले जाकर दिखलाओ। परन्तु दिन-भर मुझे खाना पीना कुछ भी अच्छा न लगा। तीसरे पहर सोकर उठने के उपरान्त स्वामीने पूछा-आज तुम कुछ खिन्न क्यों दिखलाई देती हो ? पहलेका अभ्यस्त उत्तर मुँहपर आ रहा था। मैं कहना चाहती थी—नहीं, कुछ भी नहीं हुआ। पर अब छल-कपटके दिन चले गये थे। मैंने स्पष्ट कह दिया- मैं कई दिनोंसे तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ । पर जब मैं कहने लगती हूँ, तब मेरे समझमें ही नहीं आता कि मुझे क्या कहना है । मैं यह तो नहीं जानती कि मैं अपने हृदयकी बात ठीक तरहसे समझाकर तुमसे कह सकूँगी या नहीं, पर इसमें सन्देह नहीं कि तुम अपने मनमें समझ सकते हो कि. हम दोनों आदमियोंने जिस प्रकार जीवन प्रारम्भ किया था, एक होकर

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